आरासुरी अम्बामाता
इतिहास
दिल्ली – अहमदाबाद रेलवे लाइन पर स्थित आबूरोड़ स्टेशन से 21 किलोमीटर
दूर आरासुर पर्वत पर अम्बामाता का लोकविख्यात शक्तिपीठ है। अम्बामाता
अम्बिकामाता भी कहलाती है। आरासुर पर्वत पर विराजमान होने के कारण ही
इन्हें आरासुरी अम्बाजी कहा जाता है। आरासुर पर्वत के सफेद होने के कारण
इन्हें ‘धोलागढ़ वाली माता’ भी कहा जाता है। माता का मन्दिर संगमरमर पत्थर
से बना है तथा बहुत प्राचीन है।
पर्वत की तलहटी में ही अम्बाजी नामक नगर बसा हुआ है। आबूरोड़ से आरासुर
पर्वत का रास्ता घने वन में होकर जाता है। मार्ग में झरनों के मनोरम दृश्य
तथा पुष्पों की सुगंध से मन ऐसा मुग्ध हो जाता है कि पैदल चलने वाले
यात्री को मार्ग के कष्ट का पता ही नहीं चलता। मन्दिर के चारों ओर
धर्मशालायें बनी हैं जहाँ यात्रियों के लिए सब प्रकार की सुविधाएँ हैं।
भगवान श्रीकृष्ण का मुण्डन संस्कार
अम्बामाता अनेक समाजों में कुलदेवी के रूप में पूजित हैं। इन समाजों के बच्चों का मुण्डन संस्कार यहीं होता है। भगवान श्रीकृष्ण का मुण्डन संस्कार भी यहीं हुआ था। माता
के मन्दिर के पास एक विशाल चौक है, जो चाचर कहलाता है। चाचर देवियों के
अखाड़े की नृत्यस्थली के रूप में प्रसिद्ध है। चाचर में रात को एक बहुत बड़ा
तवा घी से भरकर जलाया जाता है, उसे भी चाचर कहते हैं। रजस्वला स्त्री और
सूतक लगे हुए लोग चाचर में नहीं जा सकते।
आरासुरी अम्बाजी के मेले
अम्बामाता के यहाँ प्रत्येक पूर्णिमा को मेला लगता है। भाद्रपद, आश्विन,
कार्तिक और चैत्र की पूर्णिमा को भव्य मेले लगते हैं। यहाँ दूर-दूर से
लाखों यात्री दर्शन और जात-जडूले के लिए आते हैं। मनौती करने वाले
श्रद्धालु की जब मनोकामना पूरी होती है, तो वह माता के दर्शनार्थ उपस्थित
होने तक कोई नियम ले लेता है तथा पूर्ण श्रद्धा से उसका पालन करता है।
महाराणा प्रताप पर अम्बाजी की कृपा
एक बार नदी पार करते समय, महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक का पैर बहते हुए
पेड़ की डालियों में उलझ जाने से, उनके प्राण संकट में पड़ गये थे। अम्बामाता
की मनौती से उनकी प्राण-रक्षा हुई। उन्होंने अम्बामाता के दर्शन कर, अपनी
तलवार भगवती के चरणों में भेंट की। आज भी उस तलवार की नित्य पूजा होती है।
आरासुरी अम्बाजी का दर्शन
माताजी के दर्शन में प्रतिदिन विविधता होती है। माताजी का दर्शन प्रातः 8
बजे से 12 बजे तक होता है। भोजन का थाल रखने के बाद दर्शन बन्द हो जाता
है। शाम को सूर्यास्त के समय भव्य आरती होती है। आरती के समय बेशुमार भीड़
होती है।
आरासुरी अम्बाजी का भाई, बहन व भतीजी
अम्बामाता के विषय में एक अवतारकथा प्रचलित है, जिसके अनुसार अम्बामाता
के भाई का नाम चक्खड़ा तथा बहन का नाम अजाई था। अजाईमाता का मन्दिर
अम्बामाता के मन्दिर के पृष्ठभाग की ओर मानसरोवर के दक्षिण पार्श्व में
स्थित है। अम्बामाता की भतीजी का नाम बिरवड़ी माता है।
सेठ अखैराज पर अम्बाजी की कृपा
अम्बामाता के मन्दिर में सेठ अखैराज के वंशजों की ओर से घृत का अखण्ड
दीपक जलता रहता है। माता ने अखैराज के डूबते जहाज को बचाया था। अखण्डदीप के
लिए घृतदान की परम्परा उसी ने प्रारम्भ की थी, जो उसके वंशजों के द्वारा
आज तक निभाई जाती है।
आरासुरी अम्बाजी के स्थान
मन्दिर से एक कोस पर एक छोटी सी पहाड़ी पर ‘गब्बर’ नामक स्थान है। उसी
स्थान पर एक ग्वाले को माता ने साक्षात् दर्शन दिए थे। गब्बर पर चढ़ने के
मार्ग में एक गुफा आती है। उसे माई का द्वार कहते हैं। पर्वत के भीतर एक
मन्दिर में माता का झूला है।
गब्बर के शिखर पर तीन स्थान हैं। उनमें एक माता के खेलने की जगह है।
यहाँ पत्थर पर पैर की छोटी-छोटी अंगुलियों के चिह्न दिखाई देते हैं। दूसरा
स्थान पारस पीपला है। तीसरा स्थान भगवान श्रीकृष्ण का ज्वार है। इसी स्थान पर यशोदा मैया ने भगवान श्रीकृष्ण का मुण्डन कराया था।
आरासुरी अम्बाजी की एक परिवार पर कृपा
माता की महिमा के अनेक वृत्तान्त विख्यात हैं। सम्वत् 1981 में सिनोर
ग्राम का एक परिवार माता के दर्शनार्थ आ रहा था। रात्रि में परिवार का एक
तीन-चार वर्ष का लड़का असावधानीवश रोह स्टेशन के आगे चलती रेलगाड़ी से गिर
पड़ा। जंजीर खींचकर बच्चे को तलाशा गया, पर लोग बच्चे तक नहीं पहुँच सके।
प्रातः काल वह लड़का रेलवे लाइन से थोड़ी दूरी पर रोता हुआ मिला। अपनी माँ को
देखकर वह रोता हुआ कहने लगा कि रात-भर तो तूं मेरे पास बैठी थी। अब कहाँ
चली गई थी ? बच्चे की बात सुन कर सब समझ गये कि अम्बामाता ने ही बच्चे की
माँ का रूप धरकर बच्चे की रक्षा की थी।
आरासुरी अम्बाजी की विमलशाह पर कृपा
अम्बाजी से कोटीश्वर जाने वाले मार्ग में विमलशाह द्वारा निर्मित
कुम्भारियाजी के जैन मन्दिर में भी अम्बामाता की मूर्ति विराजमान है।
दांता का राजवंश परम्परागत रूप से अम्बामाता का उपासक है। दांता राज्य
के परमार क्षत्रिय राजवंश द्वारा यात्रियों के सुविधार्थ अनेक व्यवस्था
कार्य कराये गये हैं।
कथा
॥ ॐ कुलदेव्यै नमः ॥
- प्राचीन काल में इस लोक में जब दुष्ट दैत्य महिषासुर उत्पन्न हुआ तो त्रिलोकी उससे त्रस्त हो गई। उसके पापों से पृथ्वी काँपने लगी।
- तब दयामयी देवी जगदम्बा ने लोक में अवतार लेकर, उस महिषासुर को मारकर अपने भक्तों की रक्षा की।
- देवी जगदम्बा हमारी माता है, यही हमारी माता है, यही हमारा श्रेष्ठ आश्रय है, इस प्रकार के वचन प्रसन्नचित मनुष्यों तथा देवताओं द्वारा कहे गये।
- तब सब जनों ने इस प्रकार प्रार्थना की – हे अम्बे ! आप नित्य इस लोक में ही विराजकर साकार रूप में प्रत्यक्ष दर्शन देती रहें।
- माता आरासुर नामक पर्वत पर विराजमान हुई। तब से माता आरासुरी अम्बा के नाम से विख्यात हो गई।
- राम ने अम्बामाता की पूजा करके अजय नामक अस्त्र प्राप्त करके रावण का वध किया तथा पाण्डवों ने अजयास्त्र पाकर कौरवों का संहार किया।
- द्वापर युग में आरासुरी अम्बाजी के धाम पर भगवान श्रीकृष्ण का मुण्डन संस्कार किया गया। तबसे पुत्र के प्रति वात्सल्य भावपूर्ण ह्रदय वाले भक्त वहाँ बच्चों का मुण्डन संस्कार सम्पन्न करने जाया करते हैं।
- जो भावनाशील दर्शनार्थी जन भक्तिभाव से माता के दर्शन के लिए जाते हैं, माता की कृपा से उनकी कामनाएँ निश्चित रूप से पूरी होती हैं।
- पुत्रहीन पुत्र पाते हैं तथा धनहीन धन प्राप्त करते हैं। रोगी स्वास्थ्यलाभ करते हैं। दुःखी दुःख से मुक्ति पाते हैं।
- माता की कृपा से बहुत से भक्तों ने अक्षय धन, सुख-समृद्धि और कष्टों से मुक्ति प्राप्त की।
- एक ग्वाला सदा गायें चराता था। गायों के झुण्ड में चरने वाली किसी विलक्षण गाय को देखकर…
- उस गाय का अनुसरण करता हुआ वह गब्बर शिखर पर पहुँच गया। वहाँ उसने एक भव्य मन्दिर तथा झूले पर झूल रही दिव्य स्त्री को देखा।
- ग्वाले ने उसे गाय की मालकिन समझ कर मधुर वाणी में कहा, मैंने आपकी गाय को चराया है। मुझे गाय को चराने की मजदूरी दीजिये।
- गाय की स्वामिनी ने उसके कम्बल में कुछ जौ डाल दिये ग्वाले ने खिन्न होकर जौ रास्ते में फेंक दिये और अपनी पत्नी को सारी कथा कह सुनाई।
- तब ग्वाले की पत्नी ने कम्बल में चिपके रह गये कुछ जौ के दाने देखे, जो सोने के हो गये थे। यह देखकर ग्वाला विस्मित हो गया।
- वह उस स्थान पर फिर गया। वहाँ न तो स्त्री थी और न मन्दिर। इसके बाद वह गाय भी नहीं आई, जिसे वह चराया करता था।
- एक बार समुद्र में माता के भक्त अखैराज का जहाज जब तूफान से घिर कर डोलता हुआ डूबने लगा, तब…
- भक्तों का हित करने वाली माता भगवती ने त्रिशूल से जहाज को बचाकर किनारे लगा दिया।
- माता ने पुजारी को स्वप्न में सारी बात बताकर उसे वस्त्र बदलने का आदेश दिया। माता ने वस्त्र बदलते समय उन्हें गीला देखकर…
- वस्त्र का जल निचोड़कर उसका आचमन किया। जल को खारा जानकर राजा से सारी बात कही। राजा भक्त अखैराज पर माता का वात्सल्य देखकर भावविह्वल हो गया।
- तीन सप्ताह बीतने के बाद सेठ अखैराज अम्बाजी के मन्दिर में आया। कृतज्ञ और बुद्धिमान अखैराज ने अपनी आधी सम्पत्ति मन्दिर में भेंट कर दी।
- भावना से प्रेरित हो विह्वल हुआ अखैराज माता को प्रणाम कर भीगे स्वर में प्रार्थना करने लगा – हे माता ! तुम अपने भक्तों को तारने वाली हो।
- तुम गतिहीनों की गति हो। पतितों की उन्नति तुम्ही हो। तुम मर रहे व्यक्तियों के लिए जीवन हो तथा भयभीतों के भय को हरने वाली हो।
- हे अम्बे ! तुम्हें प्रणाम है। हे धोलागढ़वाली माता ! कृपामूर्ति ! आपको प्रणाम है। चाचर में विराजमान आपको प्रणाम है। हे गब्बर में पूजित माता ! आपको प्रणाम है।
- श्रेष्ठमति वाले अखैराज ने माता के श्रृंगार के लिए हीरा अर्पित किया। उसके द्वारा प्रारम्भ की गई अखण्ड ज्योति की व्यवस्था आज तक चल रही है।
- एक बार महाराणा प्रताप घोड़े पर सवार होकर नदी पार कर रहे थे। वे नदी के जल में एक पेड़ की शाखाओं में फंस गये।
- महाराणा प्रताप जल में डूबने लगे तो वे अम्बाजी का स्मरण कर, रक्षा के लिए कातर स्वर में पुकारते हुए प्रार्थना करने लगे।
- हे अम्बामैया ! मेरी रक्षा करो। हे जगदम्बा ! मुझ शरणागत को बचाओ। हे आरासुरवासिनी आज मुझे तुम्ही बचा सकती हो।
- अम्बाजी की कृपा से महाराणा वृक्ष की जलमग्न शाखाओं जाल से बचकर निकल गये। मुगलों को जीतकर वे अम्बाजी के दर्शनार्थ जाकर प्रार्थना करने लगे।
- हे माता ! आपकी कृपा से ही मैं विपत्तिसागर में डूबने से बचा। हे करुणासागर माँ ! तुम्हारा स्नेहयुक्त वात्सल्य विलक्षण है।
- हे माता ! मेरा यह शरीर तथा मेरे श्वास आपके लिए हैं। मेरा सारा जीवन आपके लिए है। आपकी कृपा ही मेरा सर्वस्व है।
- इस राष्ट्र की स्वाधीनता ही मेरे जीवन का लक्ष्य है। हे माता ! मैं मेवाड़ की स्वतन्त्रता का वर मांगता हूँ।
- ऐसा कहकर महाराणा प्रताप ने जीवन के समान प्रिय अपना खड्ग और प्रचुर धन माता की सेवा में अर्पित करके, वहाँ से प्रस्थान किया।
- महाराणा प्रताप ने अम्बाजी की कृपा से मेवाड़ अपने अधिकार में कर लिया। इसके बाद उन्होंने अपने राज्य में अम्बाजी का भव्य मन्दिर बनवाया।
- श्रेष्ठ स्वभाव वाले जैनमतावलम्बी विमलशाह जिनमन्दिर बनाने के लिए उत्कण्ठित थे। अपनी आकांक्षा की पूर्ति के लिए वे माता की शरण में गए।
- उन्हें भण्डारानामक पहाड़ी स्थान पर गड़ा हुआ स्वर्णभण्डार मिला। उस पूरे धन को उन्होंने मन्दिर बनाने के लिए खर्च कर दिया।
- उन्होंने कुम्भारिया नामक जिनमन्दिर में अम्बाजी की प्रतिमा स्थापित की। माता की कृपा से वे अपने कार्य में सदा सफल होते रहे।
- जो भक्त श्रद्धा से अम्बाजी की शरण में आते हैं वे माता की कृपा पाकर सदा सुखी रहते हैं।