ओसियां की सच्चियाय माता
इतिहास
ओसियाँ धार्मिक सामंजस्य की नगरी रही है। यहाँ शैव, वैष्णव, शाक्त और जैन मन्दिर साथ-साथ बने। इन मन्दिरों में सच्चियाय माता का मन्दिर सर्वाधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय है। सच्चियाय माता के मन्दिर में महिषमर्दिनी दुर्गा की प्रतिमा स्थित है। वैदिकमतावलम्बियों की तरह श्रमणमतावलम्बी ओसवाल भी सच्चियाय की पूजा कुलदेवी के रूप में करते हैं। ओसवालों के पूर्वज जैनधर्म स्वीकार करने से पूर्व क्षत्रिय थे। ओसवालों का मूल उद्गमस्थल ओसियां ही है।
सच्चियायमाता का मन्दिर पहाड़ी पर स्थित है। मन्दिर के प्रवेशद्वार पर चंवरधारिणी स्त्रीप्रतिमाएँ कलापूर्ण हैं। मन्दिर तक पहुंचने के लिए सीढीदार आकर्षक मार्ग है, जिस पर आठ कलात्मक तोरणद्वार हैं।
पहाड़ी की चट्टानों को काटकर बनाया गया मन्दिर अत्यन्त भव्य है। उसका रचनाविधान अतीव चित्ताकर्षक है। मन्दिर-परिसर में नवदुर्गा, विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश, भैरव पुनियाजी आदि के छोटे-छोटे मन्दिर हैं। मुख्य मन्दिर पश्चिमाभिमुख है। मन्दिर का सभामण्डप आठ आकर्षक स्तंभों पर स्थित है। इस मन्दिर के गर्भगृह में सच्चियाय माता की भव्य स्वरूप वाली प्रतिमा प्रतिष्ठापित है। माता के बाईं ओर वैष्णवी माता की आकर्षक प्रतिमा है। मन्दिर आठवीं शताब्दी का बना हुआ है, पर इसका विकास मुख्यतः बारहवीं शताब्दी में हुआ। इस तथ्य की पुष्टि मन्दिर में लगे शिलालेखों से होती है। इतिहासकार गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने ‘ जोधपुर राज्य का इतिहास ‘ ग्रन्थ में इन शिलालेखों का उल्लेख किया है। ‘मुंहता नैणसी री ख्यात ‘ ग्रन्थ में माता के चमत्कारों का वर्णन किया गया है।
डॉ. महावीरमल लोढा ने अपनी पुस्तक ‘ओसवंश : उद्भव और विकास तथा मांगीलाल जी भूतोड़िया ने अपनी पुस्तक ‘इतिहास की अमरबेल ओसवाल ‘ में जैन परम्परा के गुटकों के उद्धरण दिये हैं जिनमें ओएशा नगर (ओसियाँ ) व मन्दिर के निर्माण की कथा का उल्लेख है। जहाँ ओएशा नगर बसा वहाँ पहले निर्जन वन था। वहाँ एक राक्षस रहता था। उस क्षेत्र में राक्षस के भय से सब आतंकित रहते थे। मंगा नामक ब्राह्मण की आराधना से प्रसन्न होकर उसकी अभिलाषा की पूर्ति के लिए माता ने राक्षस का संहार किया। मरते-मरते राक्षस ने प्रार्थना की, कि यहाँ जो नगर आपकी कृपा से बसेगा उसका नाम मेरे नाम पर हो। माता ने ऐसा ही होने का वरदान दिया –
मंगा विप्र तिन समय एक मन सक्त अराधे।
सुप्रसन्न हुई सक्त अराकेन अराधे।
जद कयो कर जोड़ तवे एक राकस चावो।
एक अन्य गुटके में सच्चियाय मन्दिर के संस्थापक उपलदेव पर माता की कृपा का वर्णन इस प्रकार किया गया है-
डॉ. महावीरमल लोढा तथा मांगीलाल जी भूतोड़िया ने उपलदेव की कथा के दो स्रोतों का उल्लेख किया है। पहला स्रोत जैन परम्परा के गुटकों का है और दूसरा चारणसाहित्य व इतिहास का।
माजी जिनने मार बस्तियां सहर बसाओ।
मारियो तबे मरतां मुखां करुणाकर वोसे कयो।
मोय नाम नग्र बसे देवी केता वर दियो।
सम्भवतः उस राक्षस का नाम ओसियाँ था। अतः उसके नाम पर नगर का नाम ओसियाँ
रखा गया। बाद में जब राजा उपलदेव ने उपकेशगच्छ के आचार्य रत्नसूरी से
देशना प्राप्त कर जैन धर्म स्वीकार किया, तब से नगर का नाम उपकेशपुर हो
गया। ऊकेश, ओएश आदि शब्द भी उपकेश ‘ शब्द के ही अपभ्रंश प्रयोग हैं।
जनसाधारण के व्यवहार में ओसियाँ नाम ही प्रचलित रहा।एक अन्य गुटके में सच्चियाय मन्दिर के संस्थापक उपलदेव पर माता की कृपा का वर्णन इस प्रकार किया गया है-
उपलदेव पंवार नगर ओएसा नरेश रा,
राजरीत भोगवै सकल सचियाय दियो वर,
नवलख चरु निधान दियो सोनहियां देवी ,
इतव उपर अरिगंज कियो सह पाव न केवी ,
इम करे राज भुगते अदल के इक वर सब दिविया,
नहिं राजपुत्र, चिंता निपट सकत प्रगट कह कत्थिया।।
हो राजा, किण काज करै चिंता मन मांहि,
थारै उदर सुतन्न वेह अंक लिखिया नाहि,
जद नृप छै दलगीर दीना वाय क इम दाखै,
राज बिना सुत राय राज म्हारो कुण राखै,
जा नृपत पुत्र होसी हमें घणां नरां पण घटसी,
होवसी वणं संकर जुवा पुव रांध राव लहसी ।।
देवी रै वरदान पुत्र राजा फल पाये,
नाम दियो जयचन्द बरस पनरा परणाये,
सच्चियायमाता अनेक समाजों में कुलदेवी के रूप में पूजित है। यहाँ बड़ी
संख्या में श्रद्धालु, जात देने व जडूला उतारने के लिए आते रहते हैं। इस
प्रकार यह मन्दिर लोक-आस्था का प्रमुख केन्द्र है।डॉ. महावीरमल लोढा तथा मांगीलाल जी भूतोड़िया ने उपलदेव की कथा के दो स्रोतों का उल्लेख किया है। पहला स्रोत जैन परम्परा के गुटकों का है और दूसरा चारणसाहित्य व इतिहास का।
कथा
॥ ॐ कुलदेव्यै नमः ॥
- राजपूताना देश में एक लोकप्रिय और प्रजा से प्रेम रखने वाला महाबली राजा हुआ। उसकी दो प्रिय रानियाँ थी।
- उनमें जो सोलंकीकुल में उत्पन्न रानी थी, उसका पुत्र अत्यन्त पराक्रमी था। वह भूमण्डल पर उपलदेव नाम से प्रसिद्ध हुआ।
- उसका विवाह कच्छवाहा कुल में हुआ। इसके बाद वह नरश्रेष्ठ उपलदेव युवराज पद प्राप्त कर शोभायमान हुआ।
- सौतेले भाई की संगति के कारण उपल के स्वभाव में चंचलता आ गई। संसार में दुष्टों की संगति से मनुष्य के व्यक्तित्व में बदलाव आ जाता है।
- एक दिन युवराज राज्य में भ्रमण कर रहा था। तब उसने जलाशय पर चंचलतावश कुमारियों के घड़े फोड़ दिये।
- राजा ने युवराज को राज्य से निकाल दिया। देश-निकाला पाकर वह बंधुजनों के साथ ओसियाँक्षेत्र जा पहुँचा। वहाँ पर वह एक निर्जन वन में विश्राम करने लगा।
- युवराज उपलदेव के मन में महान् पश्चाताप हुआ। वे सोचने लगे – अहो ! दुष्ट भाई के संग से मेरा स्वभाव ही बदल गया।
- हे जगदम्बा ! मैंने मोहवश कैसा दुष्कर्म कर डाला। हे जगन्माता ! मैं क्षमा माँगता हूँ। मुझ शरणागत को क्षमा करो।
- उसने स्वप्न में भयहारिणी चामुण्डा का दर्शन किया। देवी ने कहा – हे वत्स ! तुम इस सुशोभन भूमि को त्यागना मत। यहीं रहना।
- तुम अपने पलंग के नीचे देखो। वहाँ एक बन्द कुआँ है। यह कुआँ लोकहितकारी राजा सगर के द्वारा बनवाया हुआ है।
- कुएं से उत्तर दिशा की ओर, साठ कदम की दूरी पर भूमि में धातुनिर्मित पात्र चरु गड़े हुए हैं। वे चरु सोने से भरे हैं।
- उपलदेव ने जागकर अद्भुत दृश्य देखा। उसका ललाट केसर रंग से रंगा हुआ था अत्यन्त शोभायमान हो रहा था।
- उपलदेव के बंधु – बांधवों के मस्तक कुंकुम से अंकित थे। यह दृश्य देखकर वे चकित थे। नरश्रेष्ठ उपलदेव को स्वप्न का सब वृतान्त याद आ गया।
- माता के द्वारा दिया गया यह परचा मेरे सौभाग्य का सूचक है। इस प्रकार आश्वस्त होकर उपल खुदाई करने लगा।
- कुआँ मिलने पर उसका पानी खारा देखकर वह दुःखी हो गया। मनुष्यों में श्रेष्ठ उस उपलदेव ने रात्रि में पुनः स्वप्न देखा।
- वत्स ! तुमने मेरी प्रसन्नता के भोग क्यों नहीं लगाया। भोग लगा देने पर तुम पानी को मीठा पाओगे।
- तुम घुड़सवारों के साथ पूरे दिन पृथ्वी पर विचरण करो। उतनी भूमि पर तुम्हारा राज्य स्थापित हो जाएगा।
- तब प्रसन्न होकर उसने माता का पूजन किया। कुएं का जल मीठा हो गया। यह देखकर वह विस्मित हो गया।
- प्रसन्न होकर वह उपलदेव योद्धाओं के साथ पृथ्वी पर विचरण करने लगा। दिन भर में वह जितनी पृथ्वी पर विचरण कर सका, वहाँ अपना राज्य स्थापित कर महाराज बन गया।
- इसके बाद उपलदेव ने सोने के चरु पाने के लिए खुदाई करवाई। उसे बहुत से चरुओं में स्वर्णमुद्रायें प्राप्त हुईं।
- महान् वीर उपलदेव ने माता के भव्य मन्दिर तथा ओसियां नगर की स्थापना की। उसने महान् उत्सव का आयोजन किया।
- स्वप्न में माता द्वारा दिये गये आशीर्वाद और वरदान के सच हो जाने के बाद राजा उपलदेव, उसका मन्त्री ऊहड़ और प्रजाजन भगवती को श्रद्धा-भक्ति से कुलदेवी मानने लगे।
- महान् वीर राजा उपलदेव मारवाड़ी भाषा में माता महिषासुरमर्दिनी को सच्ची आय तथा संचायमाता (सच्ची देवी ) कह कर ही पुकारते थे।
- (विशेष – मारवाड़ी भाषा में ‘ आय ‘ शब्द देवीवाचक है। सकराय, समराय, जीणाय आदि शब्द इसी प्रकार ‘आय’ शब्द के योग से बने हैं। मारवाड़ी में सच को सांच /संच इन रूपों में भी उच्चारण होता है। इन रूपों के आधार पर संचायमाता नाम प्रचलित हुआ। ‘ सच्ची आय ‘ का उच्चारण सच्चियाय होने लगा। )
- राजा उपलदेव ने ‘सच्चीआय माता’ की कृपा से गुणवान पुत्र पाया। उसका नाम जयचंद्र था। वह पिता को बहुत प्रिय था।
- राजा उपलदेव ने ढलती जवानी में, एक जैन आचार्य से प्रेरित होकर बहुत से क्षत्रियों के साथ जैनधर्म की दीक्षा प्राप्त की।
- अपने गुरु जैन आचार्य के उपदेश से राजा ने अहिंसाव्रत धारण किया। वह अपने जैन धर्म के अनुसार सच्चियायमाता की उपासना करने लगा।
- महाराज उपलदेव का उहड़ नामक मन्त्री महान् धर्मनिष्ठ था। उसने एक सुन्दर महावीर – मन्दिर का निर्माण कराया।
- तब कुछ श्रावकों ने मन्दिर में प्रतिष्ठापित श्री महावीर की प्रतिमा में स्थित दो गांठों को अशोभन देखकर मोहवश उनका छेदन कर दिया।
- तब देवी ने कुपित होकर ग्रन्थिछेदन करने वाले श्रावकों को शाप दिया। माता के कोप की शान्ति के लिए स्नात्रपूजा की गई। तब माता ने संतुष्ट होकर अभयदान दिया।
- संतुष्ट हुई देवी की आज्ञा से राजा और महाजन सब ओसियाँ से प्रस्थान कर सारे राष्ट्र में फैल गये। उन्होंने अत्यन्त समृद्धि को प्राप्त किया।
- उनके वंशज ओसवाल कहलाये। वे ओसवाल अपनी कुलदेवी की कृपा की कामना से ( जात जडूला ) शुभ – मंगल कार्य सम्पन्न करने के लिए श्रद्धा से आते हैं।
- इस राष्ट्र के अनेक समाजों के विभिन्न गोत्रों में लोग इस कुलदेवी को संचाय, सच्चियाय, सच्चिका, सूचिकेश्वरी, सूच्याय, सचवाय आदि बहुत से नामों से पूजते हैं। कृपा की कामना से सब माँ जगदीश्वरी का ध्यान करते हैं।
- महिषासुरमर्दिनी कुलदेवी सच्चियाय माता अपने भक्तों को मनोवांछित फल प्रदान करती है।
- वैरसी सांखला बचपन में पिता की हत्या हो जाने से अनाथ हो गया था। माता की कृपा से शक्तिमान होकर उसने पिता के हत्यारे को मारकर प्रतिशोध लिया।
- अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वह कमलपूजा करने की इच्छा से सच्चियाय माता के मन्दिर में गया, परन्तु माता ने उसे कमलपूजा करने से रोक दिया।
- (विशेष – कमलपूजा में व्यक्ति अपना सिर काटकर आराध्य को अर्पण कर देता है। )
- सच्चियायमाता की आज्ञा से वैरसी ने सोने का शीश बनवाकर उससे माता की कमलपूजा की। माता ने प्रसन्न होकर अपने हाथ में स्थित शंख वैरसी को दे दिया।
- वैरसी ने माता की आज्ञा से शंख बजाया। इससे वह भूलोक में सांखला उपाधि से प्रसिद्ध हुआ। उसके बाद उसके गोत्र में जन्म लेने वाले वंशज भी सांखलासंज्ञा से प्रसिद्ध हुए।
- सेठ गयपाल नामक एक भक्त ने माता की कृपा से मनोवांछित फल पाकर, बड़ी प्रसन्नता से मन्दिर में क्षेत्रपाल आदि मूर्तियों की प्रतिष्ठा कराई।
- माता का परचा सच्चा होता है, कृपा सच्ची होती है, कृपा का फल भी सच्चा होता है। सच्चे भक्तों की रक्षा करने वाली माता का सच्चियाय (सच्ची देवी) नाम वस्तुतः सार्थक है।
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