आशापूरा माता की श्लोकमय कथा – कुलदेवीकथामाहात्म्य

‘कुलदेवीकथामाहात्म्य’

नाडोल की आशापूरा माता 

इतिहास

राजस्थान के पाली जिले में नाडोल कस्बे के पास आशापूरा माता का मन्दिर है। इस मन्दिर की स्थापना नाडोल में चौहानराज्य के संस्थापक लक्ष्मण (लाखनसी) चौहान ने कराई थी। नैणसी की ख्यात के अनुसार लाखनसी चौहान (लक्ष्मण) को नाडोल का राज्य आशापूरा माता की कृपा से ही मिला था।
कर्नल जेम्स टॉड ने नाडोल में चौहान राजवंश की स्थापना से सम्बंधित दो शिलालेख लन्दन की रॉयल एशियाटिक सोसाइटी को भेंट किये थे। वे शिलालेख क्रमशः वि.सं. 1039 (982 ई.) तथा वि.सं. 1024 (967 ई.) के थे। इससे लक्ष्मण की स्थिति दशम शताब्दी में सिद्ध होती है।
कीर्तिपाल के ताम्र अभिलेख में, जो सम्वत् 1218 (1161 ई.) का है, उसमें लक्ष्मण को नाडोल का राजा बताया गया है। अभिलेख का अंश इस प्रकार है –
शाकम्भरीनाम     पुरे     पुरासीच्छ्रीचाहमानान्वयवंशजन्मा। 
राजा महाराजनतांघ्रियुग्मः  ख्यातोSवनौ वाक्पतिराजनामा।।
नड्डूले       समभूत्तदीयतनयः        श्रीलक्ष्मणो       भूपतिः। 

इस प्रकार लक्ष्मण के स्थितिकाल के आधार पर आशापूरा माता के मन्दिर का निर्माणकाल दशम शताब्दी सिद्ध होता है। लक्ष्मण चौहान के समय से चौहान आशापूरा माता को कुलदेवी मानने लगे थे। अन्य अनेक समाजों के विभिन्न गोत्रों में भी आशापूरा माता को कुलदेवी के रूप में पूजा जाने लगा। इस समय आशापूरा माता के उपासकों की संख्या बहुत बड़ी है जो भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बसे हुए हैं।

आशापूरा माता का मन्दिर नाडोल कस्बे से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मन्दिर तक पक्की सड़क बनी है। अब प्राचीन मन्दिर के स्थान पर संगमरमर के नवीन भव्य मन्दिर का निर्माण कर दिया गया है। केवल निजमन्दिर को यथावत् रखा  गया है।
मन्दिर के पास ही लाखनसी द्वारा बनवायी गई प्राचीन बावड़ी है। मंदिर -परिसर बहुत बड़ा है जहाँ सत्संग-भवन, विश्राम भवन, भोजनालय आदि पृथक्-पृथक् स्थानों पर बने हैं।

कथा 
॥ ॐ कुलदेव्यै नमः ॥
  • शाकम्भरी (सांभर) राज्य के राजा वाक्पतिराज के श्रेष्ठ गुणों वाले सिंहराज और लक्ष्मण नामक दो पुत्र थे। 
  • बड़ा पुत्र महाबली सिंहराज पिता के बाद सिंहासन पर बैठा। तब छोटे पुत्र लक्ष्मण ने मन में दृढ संकल्प किया। 
  • जब तक जगदम्बा की कृपा से मुझे स्वतन्त्र राज्य नहीं मिलेगा तब तक सामान्य योद्धा की तरह ही जीवन बिताऊँगा। 
  • उस स्वाभिमानी महान योद्धा लक्ष्मण ने यह दृढ व्रत धारण किया। उसने देवीकृपा का ही सहारा लेकर, भाई द्वारा दी गई जागीर को छोड़कर वहाँ से प्रस्थान किया। 
  • चित्त में जगदम्बा का स्मरण करता हुआ और उसी भाव में रमा हुआ वह वीर लक्ष्मण अपनी पत्नी और सेवकों के साथ निरन्तर चलता रहा।
  • देवीभक्त वह लक्ष्मण रात्रि में नाडोलपुरी पहुँचकर नगर के बाहर एक मन्दिर के आंगन में विश्राम करने लगा। 
  • प्रातःकाल उसे जागा देखकर मन्दिर का पुजारी मधुरवाणी में कहने लगा – हे वीर ! हथियारों से सुशोभित तुम कौन हो ?
  • वह बोला – मैं लक्ष्मण हूँ। मुझे लाखनसी भी कहा जाता है। हथियार ही मेरी जीविका का आधार है। मैं सेवाकार्य की खोज में जा रहा हूँ। 
  • हे विप्रदेव ! ये मेरे सेवक हैं और वह मेरी पत्नी है। पुजारी उसके वचन सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने उन सबके लिए आवासादि की व्यवस्था कर दी। 
  • पुजारी की प्रेरणा से नाडोल के महामंत्री ने लक्ष्मण को नाडोल के परकोटे की रक्षा के कार्य हेतु नियुक्त कर दिया। 
  • नाडोल का राजा सामन्तसिंह शासक के कर्त्तव्य से विमुख, युद्ध में धैर्य धारण करने में असमर्थ और मूढ था। वह सदा भोगविलास में रत रहता था। 
  • नाडोल की प्रजा लूटेरों से पीड़ित थी। वह सदा भयभीत और व्यथा से आकुल रहती थी। लक्ष्मण के उत्तम स्वभाव और बल के कारण प्रजा शीघ्र ही उसके प्रति आकृष्ट हो गई।
  • लक्ष्मण के पास सेना की एक छोटी सी टुकड़ी थी। फिर भी वह अपने कर्त्तव्य का पालन करता हुआ महान प्रयास से नगर की रक्षा करने लगा।
  • बुद्धिमान लक्ष्मण ने नाडोलनरेश से कहा – हे राजन ! सेना के बल की वृद्धि के लिए घोड़े लाये जाने चाहिए।
  • राजा ने कहा कि घोड़े खरीदने के लिए धन नहीं है। यह सुनकर अजेय योद्धा लक्ष्मण उद्विग्न हो गया।
  • लक्ष्मण ने ह्रदय में विचार किया कि यदि राजा राजधर्म का पालन नहीं करता तो उसका शासन करना ही व्यर्थ है।
  • एक बार मेदसंज्ञक भयानक लड़ाकू लुटेरों ने नगर को लूटने के लिए अचानक भीषण आक्रमण कर दिया।
  • लूटेरों के आक्रमण को देखकर योद्धा लक्ष्मण के नेत्र क्रोध से लाल हो गए। उसने सेना के साथ लुटेरों का प्रतिरोध किया।
  • लक्ष्मण की सेना के पास न तो घोड़े थे और न श्रेष्ठ हथियार। फिर भी उसने लक्ष्मण के नेतृत्व में लूटेरों का प्रतिरोध किया।
  • लक्ष्मण के वीर योद्धाओं ने क्रोध से उन आततायी दस्युओं पर तीव्र गति से आक्रमण किया तथा उन्हें नगर से दूर खदेड़ दिया।
  • लक्ष्मण की सेना भागते हुए लूटेरों का पीछा करने लगी। नगर के परकोटे से दूर खुले मैदान में दस्युओं के साथ उसका फिर प्रचण्ड युद्ध हुआ।
  • तब लक्ष्मण की वह अश्वहीन और थोड़े हथियारों वाली सेना, उन श्रेष्ठ हथियारों वाले घुड़सवार दुष्ट लूटेरों द्वारा युद्धभूमि में नष्ट कर दी गई।
  • अश्वहीन लक्ष्मण के भी हथियार नष्ट हो गये। उसका थका हुआ शरीर घावों से भर गया था। वह मूर्च्छित होकर युद्ध के मैदान में गिर पड़ा।
  • अहो ! उसके बाद बेसहारा और दीन प्रजा को लूटेरों ने लूट लिया, किन्तु वह अयोग्य राजा चित्त में लज्जित न हुआ।
  • तब देवीभक्त, प्रजाप्रिय और लोकानुरागी लक्ष्मण अनन्यचित्त होकर देवी की आराधना में लीन हो गया।
  • लक्ष्मण प्रार्थना करने लगा – हे माता ! आज नगरी में सब लोग बेसहारा, निराश, दीन और दुःखी हैं। उनकी रक्षा की आशा को पूरी करने के लिए तैयार हुआ तेरा पुत्र यह लक्ष्मण भी निराश है। . हे आशा पूरी करने वाली माँ ! सबकी आशा पूरी करो।
  • बुद्धिमान लक्ष्मण ने इस प्रकार प्रार्थना करते-करते जगदम्बा की सेवा में आत्मनिवेदन किया।
  • आशा पूरी करने वाली जगन्माता शाकम्भरी लक्ष्मण पर संतुष्ट हुई। माता ने उसे अभीष्ट वरदान दिया।
  • माता की कृपा से वहाँ तेरह हजार घोड़े प्रकट हो गये। घोड़ों के समूह को देखकर लक्ष्मण की व्यथा मिट गई।
  • हे वत्स ! इन घोड़ों पर केसरयुक्त जल छिड़को, ‘ जगदम्बा की ऐसी वाणी लक्ष्मण को सुनाई दी।
  • लक्ष्मण ने घोड़ों पर केसरयुक्त जल छिड़का। इससे उनका प्राकृतिक रंग बदल गया।
  • महाबली लक्ष्मण सेना को संगठित करके लूटेरे मेदों का जड़ से उन्मूलन करने में लग गया।
  • ग्राम-ग्राम, नगर, वन-पर्वतों में जहाँ-जहाँ लूटेरे रहते थे उन सबको मार डाला।
  • नाडोल की प्रजा लक्ष्मण के इस श्रेष्ठ कार्य से संतुष्ट हुई।  प्रजा ने उसे नाडोल का राजा बनाकर उसका अभिनन्दन किया।
  • देवी ने प्रजा और लक्ष्मण दोनों की आशा पूरी की। प्रजा तो सब व्यथाओं से मुक्त हो गई और लक्ष्मण नाडोल का प्रजापालक शासक बन गया।
  • नाडोल नगर में राजा और प्रजा द्वारा शाकम्भरी देवी की आशापूरा नाम से नित्य पूजा और वन्दना की जाने लगी।
  • नरश्रेष्ठ महाराजाधिराज लक्ष्मण ने एक बावड़ी बनवाकर उसके पास ही आशापूरा माता का भव्य मन्दिर बनवाया। वह मंदिर सब आशाओं को सफल करने वाला था। माता का दर्शन पाकर सब लोग आनन्दित हो गये।
  • आशापूरा माता के कृपापात्र उस महान राजा ने शोभित नामक श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त किया। उसके बाद दूदा नामक दूसरा पुत्र हुआ।
  • उसने बड़े बेटे शोभित को युवराज पद दिया तथा छोटे बेटे दूदा को भण्डारी का पद दिया।
  • भक्तिपरायण दूदा भण्डारी ने जैनमत स्वीकार कर लिया। सदा आशापूरा माता के भक्तिभाव में लीन रहने वाले दूदा भण्डारी ने माता की परमकृपा प्राप्त की।
  • जैसे सूर्य लोक में व्याप्त अन्धकार को नष्ट कर देता है वैसे ही आशापूरा माता भय, दरिद्रता और मानसिक व्यथा को नष्ट कर देती है। वह माता भक्त-वत्सला है।
  • आशापूरा माता अपने करुणामय स्वभाव से विवश होकर सबको उत्तम समृद्धि देती है। माता का अपात्र पुत्रों पर भी अकारण स्नेह होता है।
  • जो भक्त सदा श्रद्धा से माता का ध्यान करते हैं, अनन्यचित्त वाले वे भक्त तो माता की अलौकिक कृपा प्राप्त करते हैं।

कथा समाप्त
॥ ॐ कुलदेव्यै नमः ॥


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