अग्रोहा महालक्ष्मी माता की अद्भुत कथा व इतिहास – कुलदेवीकथामाहात्म्य

इतिहास

हरियाणा में अग्रोहा नामक स्थान पर महालक्ष्मीमाता भव्य मन्दिर है। अग्रोहा पुरातात्त्विक महत्त्व वाला प्राचीन सभ्यता केन्द्र है जहाँ अनेक पुरावशेष उपलब्ध हुए हैं। पुरातात्त्विक अनुसन्धान से पता चला है कि वहाँ पहले एक नगर था जो सरस्वती नदी के किनारे बसा था। उसका नाम प्रतापनगर था और वह ब्रह्मावर्त देश के दक्षिण में अवस्थित था।
प्राचीनकाल में भारतवर्ष अनेक जनपदों में विभक्त था। सरस्वती और दृषद्वती नदियों के बीच का क्षेत्र ब्रह्मावर्त कहलाता था। महाराज अग्रसेन ने प्रतापनगर को अपनी राजधानी बनाया तो प्रतापनगर अग्रोहा नाम से विख्यात हुआ। महाराज अग्रसेन ने अग्रवाल समाज के वंशप्रवर्तक आदिपुरुष थे। वे वैश्य शासक धनपाल की वंशपरम्परा में महाराज वल्लभ के पुत्र थे। महाराज अग्रसेन के बाद उनका कुल कुलदेवी महालक्ष्मी के वरदान से उनके ही नाम से अग्रवाल कहलाने लगा।
नागराज कुमुद की पुत्री माधवी से विवाह करने के कारण महाराज अग्रसेन की इन्द्र से शत्रुता हो गई। तब उन्होंने गुरु गर्ग मुनि से मन्त्रदीक्षा प्राप्त कर महालक्ष्मीमाता की आराधना की। महालक्ष्मीमाता ने उन्हें अजेय होने का प्रथम वरदान दिया तथा कुलदेवी के रूप में उनके तथा उनके वंश के संरक्षण करने का द्वितीय वरदान दिया। महाराज अग्रसेन ने अपनी राजधानी अग्रोहा में महालक्ष्मीमाता का भव्य मन्दिर बनवाया। महाराज अग्रसेन के बाद उनकी अनेक पीढ़ियों ने अग्रोहा का शासन किया।
कालान्तर में भौगोलिक परिवर्तन से अग्रोहा नगरी सरस्वती नदी के प्रवाह क्षेत्र में आ गई। सरस्वती नदी में बार-बार आने वाली बाढ़ से उजड़ कर वह नगरी ध्वस्त हो गई। फलस्वरूप अग्रवंश का प्रवास देश के विभिन्न राज्यों में हो गया।
आधुनिक युग में अग्रवाल वैश्यों ने अपनी उद्गमस्थली अग्रोहा के संरक्षण और विकास में रूचि ली। वहाँ पुरातत्त्वज्ञों की देख-रेख में उत्खनन कराया गया तथा पुरावशेषों को संरक्षित किया गया। वहाँ कुलदेवी महालक्ष्मीमाता के मन्दिर का पुनर्निर्माण कराया गया। अब अग्रोहा का महालक्ष्मीमन्दिर अग्रवाल-समाज का प्रमुख श्रद्धाकेन्द्र है।

महाराज अग्रसेन को कुलदेवी महालक्ष्मी के वरदान के विषय में अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इनमें महालक्ष्मीव्रतकथा नामक एक संस्कृत रचना तथा श्री भारतेन्दु द्वारा रचित पुस्तक ‘अग्रवाल की उत्पत्ति’ प्रमुख है। प्रस्तुत कथा इन्हीं प्राचीन कथाओं के मुख्य बिन्दुओं पर आधारित है। इसकी रचना में ऐतिहासिक व पुरातात्त्विक साहित्य तथा जनश्रुति का भी आश्रय लिया गया है।

कथा 

॥ ॐ कुलदेव्यै नमः ॥


  •  अग्रोहा नामक राज्य में महाराज वल्लभ के पुत्र अग्रसेन नामक महान् श्रेष्ठ राजा थे।
  • महाराज अग्रसेन ने नागराज कुमुद की श्रेष्ठ कन्या माधवी के साथ विवाह किया।
  • इन्द्र के क्रोध से अपनी प्रजा की दुर्दशा देखकर महाराज अग्रसेन ने अलौकिक शक्ति पाने के लिए काशी में शिव की पूजा की।
  • भगवान शिव ने पूजन से सन्तुष्ट होकर महाराज अग्रसेन से कहा कबताई।  तुम्हें महामाया कृपामयी महालक्ष्मी की उपासना करनी चाहिए। वे तुम्हें अभीष्ट फल प्रदान करेंगी।
  • हरिद्वार में गर्ग नामक महाज्ञानी तपस्वी रहते हैं। तुम उन्हें गुरु के रूप में स्वीकार कर महालक्ष्मी की उपासना करो।
  • महाराज अग्रसेन ने भगवान शिव का वचन सुनकर गर्ग ऋषि की शरण ली। गर्ग ऋषि को गुरुरूप में स्वीकार कर उन्हें सारी बात बताई।
  • गुरु गर्ग ऋषि बोले कि भगवान शिव ने यथार्थ बात कही है। जगदम्बा महालक्ष्मी सब कामनाओं को पूर्ण करती हैं।
  • जो आदिशक्ति पराम्बा महालक्ष्मी की आराधना करते हैं उनके लिए त्रिलोकी में कुछ भी दुर्लभ नहीं है।
  • राजा के पूछने पर गुरु गर्ग ऋषि ने कृपा करके उन्हें महालक्ष्मी की पौराणिक कथा सुनाई और तपस्या के लिए प्रेरित किया।
  • महान् गुरु गर्ग ऋषि के प्रेरक व तप से सिद्ध वचन सुनकर राजा गुरु के सान्निध्य में वहाँ तप करने लगे।
  • उन्हें तप करते हुए मार्गशीर्ष महीने की नन्दा तिथि से पूर्णिमा आ गई। इस प्रकार श्रेष्ठ राजा ने एक मास तक तपस्या की।
  • पूर्णिमातिथि को सर्व इष्टफल देने वाली कृपामयी महालक्ष्मी माता प्रकट हो गई।
  • माता महालक्ष्मी ने कहा – वत्स ! वर माँगो। मैं तुम्हारी तपस्या और भक्ति से सन्तुष्ट हूँ। तुम्हारे मन में जो इच्छा है वही वर देती हूँ।
  • महाराज अग्रसेन ने कहा – हे देवी ! यदि आप वरदान दे रही हैं तो देवराज इन्द्र को मेरे वश में कर दीजिए। उन्होंने क्रोध से व्यर्थ ही मेरी निरीह प्रजा को सताया है।
  • महालक्ष्मीमाता ने कहा – हे राजन् ! ऐसा ही हो। अब तुम्हें इन्द्र का कोई भय नहीं है। मैं प्रसन्न होकर एक और वर देती हूँ।
  • मैं तुम्हारी कुलदेवी होकर प्रजा और परिवार के साथ तुम्हारी रक्षा करुँगी। तुम्हें सब शुभ-मंगल फल प्राप्त होंगे।
  • तब महाराज अग्रसेन ने कहा – हे माता ! पृथ्वी पर जो मनुष्य श्रेष्ठ भक्तिभाव से तुम्हें भजते हैं उन सबका मंगल करो।
  • अहो पुत्र ! तुम्हारा सब लोकों पर निर्मल प्रेम, समता और अपनत्व की भावना है। मैं तुम्हारे वचन से सन्तुष्ट हूँ।
  • तब कुलदेवी महालक्ष्मीमाता की आज्ञा से बुद्धिमान महाराज अग्रसेन कोलपुर में आयोजित एक स्वयंवर समारोह में गए।
  • वहाँ कोलनरेश महीधर की सब कन्याओं ने उनके रूप से मोहित होकर उन्हें पतिरूप में स्वीकार किया। उनसे विवाह के बाद महाराज अग्रसेन अपनी राजधानी अग्रोहा लौट आए।
  • तब देवराज इन्द्र देवर्षि नारद के साथ महाराज अग्रसेन के साथ सन्धि करने अग्रोहा नगरी आए। देवराज को आया हुआ देखकर कोमल स्वभाव वाले महाराज अग्रसेन ने उनका स्वागत किया।
  • सन्धि करके देवराज इन्द्र प्रसन्नता से स्वर्गलोक चले गए। नरों में श्रेष्ठ महाराज अग्रसेन प्रजा पर प्रेमभाव से शासन करने लगे।
  • कुछ समय बाद धैर्यशाली श्रेष्ठ साधक महाराज अग्रसेन महालक्ष्मी की तपस्या के लिए यमुनातट पर चले गये।
  • वे दीर्घकाल तक तप करते रहे।  देवेश्वरी पराम्बा महालक्ष्मी प्रकट हुई। महाराज उन्हें प्रणाम कर भावविह्वल वाणी से स्तुति करने लगे। हे माता ! हे कुलदेवी महालक्ष्मीजी ! आपको प्रणाम है।
  • हे माता ! आप ही भक्तजनों का हित करने वाली हैं। आप ही जगदम्बा, महामाया, रमा, ज्वाला और सबसे श्रेष्ठ हैं।
  • आप आदिशक्ति जगत्पूज्या और भक्तों पर अनुग्रह करने वाली हैं। आप ही वैष्णवी, ब्राह्मी, महाकाली और देवों की स्वामिनी हैं।
  • हे माता ! सब सदा सुखी रहें। सब सहृदय, समृद्ध, निर्भय और रोगरहित हों।
  • इस प्रकार महाराज अग्रसेन के वचन सुनकर परमेश्वरी महालक्ष्मी ने कहा – हे पुत्र तुमने बहुत तप कर लिया। अब तप से विरत हो जाओ।
  • अब मेरी आज्ञा से गृहस्थधर्म का पालन करो। गृहस्थाश्रम का निर्वाह करना दिव्य साधना है। गृहस्थधर्म श्रेष्ठ तप है।
  • तुम श्रेष्ठ भाव से सदा लोकों का शासन करो। हे राजन् !तुम्हारे वंश से तुम्हारी अत्यन्त ख्याति होगी।
  • तुम्हारा कुल तुम्हारे ही नाम से प्रसिद्ध होगा। इस प्रकार उत्तम वर देकर माता महालक्ष्मी अन्तर्धान हो गई।
  • यमुनातट से महाराज अग्रसेन त्रिकूट पर्वत पर जा पहुँचे। उन्होंने वहाँ शक्तिपीठ में कैलादेवी नाम से प्रतिष्ठित, देवताओं द्वारा अर्चित, लोकपूज्य, कृपामूर्ति महामाया महालक्ष्मी के दर्शन किए।
  • इसके बाद उन्होंने यमुना के पावन तट पर अपनी रमणीय तपोभूमि पर आगरा नामक भव्य नगरी की स्थापना की। वह नगरी उनके राज्य की सीमा पर स्थित थी। वे नगरी की रक्षा के लिए सेना नियुक्त करके अग्रोहा नगरी चले गए।
  • उन्होंने अपने गुरु गर्ग ऋषि को ग्राम भेंट किया जो गुरुग्राम (अब गुडगाँव ) नाम से जगत में विख्यात है।
  • भव्य अग्रोहा नगरी धन्य हो गई।  वह सब सुखों से समृद्ध थी। वह पृथ्वी पर लोगों के आकर्षण का केन्द्र बन गई।
  • उस नगरी में जो भी नवागन्तुक निवास के लिए जाता उसे प्रत्येक नागरिक परिवार एक स्वर्णमुद्रा तथा एक ईंट देता था।
  • महाराज अग्रसेन कुलदेवी की कृपा से लम्बे समय तक शासन करके वृद्धावस्था में तप करने चल पड़े।
  • तत्पश्चात् कुलदेवी की कृपा से उनके विभु आदि अनेक वंशज राजा क्रमशः लम्बे समय तक राज्य करते रहे।
  • बाद के समय में महाराज अग्रसेन के वंशजों ने शासन त्याग दिया तथा व्यापार की रुचि कारण वैश्यधर्म स्वीकार किया।
  • महाराज अग्रसेन के वंशज जो अग्रवाल संज्ञा से विख्यात थे, व्यापार के लिए अग्रोहा नगरी को त्यागकर सारे देश में फैल गए।
  • किसी समय सरस्वती नदी की भीषण बाढ़ से भव्य वैभवशाली सुन्दर अग्रोहानगरी नष्ट हो गई।
  • बहुत समय बीत जाने के बाद महाराज अग्रसेन के वंशजों ने कुलदेवी महालक्ष्मी की कृपा की अभिलाषा से उनकी ही प्रेरणा से अपनी उद्गमस्थली अग्रोहानगरी में माता का उन्नत और भव्य मन्दिर बनवाया।
  • महाराज अग्रसेन के वंशज अपनी उद्गमस्थली के दर्शन एवं कुलदेवी की कृपा पाने के लिए नियम से वहाँ जाते हैं।
  • भक्तों को सुख देने वाली कुलदेवी महालक्ष्मी दर्शनार्थ अग्रोहा जाने वाले कुलीन जनों पर प्रसन्न होती हैं।

कथा समाप्त
॥ ॐ कुलदेव्यै नमः ॥


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