आरासुरी अम्बाजी की श्लोकमय कथा – कुलदेवीकथामाहात्म्य

‘कुलदेवीकथामाहात्म्य’ 

आरासुरी अम्बामाता 

इतिहास

दिल्ली – अहमदाबाद रेलवे लाइन पर स्थित आबूरोड़ स्टेशन से 21 किलोमीटर दूर आरासुर पर्वत पर अम्बामाता का लोकविख्यात शक्तिपीठ है। अम्बामाता अम्बिकामाता भी कहलाती है। आरासुर पर्वत पर विराजमान होने के कारण ही इन्हें आरासुरी अम्बाजी कहा जाता है। आरासुर पर्वत के सफेद होने के कारण इन्हें ‘धोलागढ़ वाली माता’ भी कहा जाता है। माता का मन्दिर संगमरमर पत्थर से बना है तथा बहुत प्राचीन है।
पर्वत की तलहटी में ही अम्बाजी नामक नगर बसा हुआ है। आबूरोड़ से आरासुर पर्वत का रास्ता घने वन में होकर जाता है।  मार्ग में झरनों के मनोरम दृश्य तथा पुष्पों की सुगंध से मन ऐसा मुग्ध हो जाता है कि पैदल चलने वाले यात्री को मार्ग के कष्ट का पता ही नहीं चलता। मन्दिर के चारों ओर धर्मशालायें बनी हैं जहाँ यात्रियों के लिए सब प्रकार की सुविधाएँ हैं।

भगवान श्रीकृष्ण का मुण्डन संस्कार

अम्बामाता अनेक समाजों में कुलदेवी के रूप में पूजित हैं।  इन समाजों के बच्चों का मुण्डन संस्कार यहीं होता है। भगवान श्रीकृष्ण का मुण्डन संस्कार भी यहीं हुआ था। माता के मन्दिर के पास एक विशाल चौक है, जो चाचर कहलाता है। चाचर देवियों के अखाड़े की नृत्यस्थली के रूप में प्रसिद्ध है। चाचर में रात को एक बहुत बड़ा तवा घी से भरकर जलाया जाता है, उसे भी चाचर कहते हैं।  रजस्वला स्त्री और सूतक लगे हुए लोग चाचर में नहीं जा सकते।

आरासुरी अम्बाजी के मेले

अम्बामाता के यहाँ प्रत्येक पूर्णिमा को मेला लगता है। भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक और चैत्र की पूर्णिमा को भव्य मेले लगते हैं। यहाँ दूर-दूर से लाखों यात्री दर्शन और जात-जडूले के लिए आते हैं। मनौती करने वाले श्रद्धालु की जब मनोकामना पूरी होती है, तो वह माता के दर्शनार्थ उपस्थित होने तक कोई नियम ले लेता है तथा पूर्ण श्रद्धा से उसका पालन करता है।

महाराणा प्रताप पर अम्बाजी की कृपा

एक बार नदी पार करते समय, महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक का पैर बहते हुए पेड़ की डालियों में उलझ जाने से, उनके प्राण संकट में पड़ गये थे। अम्बामाता की मनौती से उनकी प्राण-रक्षा हुई। उन्होंने अम्बामाता के दर्शन कर, अपनी तलवार भगवती के चरणों में भेंट की। आज भी उस तलवार की नित्य पूजा होती है।

आरासुरी अम्बाजी का दर्शन

माताजी के दर्शन में प्रतिदिन विविधता होती है। माताजी का दर्शन प्रातः 8 बजे से 12 बजे तक होता है। भोजन का थाल रखने के बाद दर्शन बन्द हो जाता है। शाम को सूर्यास्त के समय भव्य आरती होती है। आरती के समय बेशुमार भीड़ होती है।

आरासुरी अम्बाजी का भाई, बहन व भतीजी

अम्बामाता के विषय में एक अवतारकथा प्रचलित है, जिसके अनुसार अम्बामाता के भाई का नाम चक्खड़ा तथा बहन का नाम अजाई था। अजाईमाता का मन्दिर अम्बामाता के मन्दिर के पृष्ठभाग की ओर मानसरोवर के दक्षिण पार्श्व में स्थित है। अम्बामाता की भतीजी का नाम बिरवड़ी माता है।

सेठ अखैराज  पर अम्बाजी की कृपा


अम्बामाता के मन्दिर में सेठ अखैराज के वंशजों की ओर से घृत का अखण्ड दीपक जलता रहता है। माता ने अखैराज के डूबते जहाज को बचाया था। अखण्डदीप के लिए घृतदान की परम्परा उसी ने प्रारम्भ की थी, जो उसके वंशजों के द्वारा आज तक निभाई जाती है।

आरासुरी अम्बाजी के स्थान

मन्दिर से एक कोस पर एक छोटी सी पहाड़ी पर ‘गब्बर’ नामक स्थान है। उसी स्थान पर एक ग्वाले को माता ने साक्षात् दर्शन दिए थे। गब्बर पर चढ़ने के मार्ग में एक गुफा आती है। उसे माई का द्वार कहते हैं। पर्वत के भीतर एक मन्दिर में माता का झूला है।
गब्बर के शिखर पर तीन स्थान हैं। उनमें एक माता के खेलने की जगह है। यहाँ पत्थर पर पैर की छोटी-छोटी अंगुलियों के चिह्न दिखाई देते हैं। दूसरा स्थान पारस पीपला है। तीसरा स्थान भगवान श्रीकृष्ण का ज्वार है। इसी स्थान पर यशोदा मैया ने भगवान श्रीकृष्ण का मुण्डन कराया था

आरासुरी अम्बाजी की एक परिवार पर कृपा

माता की महिमा के अनेक वृत्तान्त विख्यात हैं। सम्वत् 1981 में सिनोर ग्राम का एक परिवार माता के दर्शनार्थ आ रहा था। रात्रि में परिवार का एक तीन-चार वर्ष का लड़का असावधानीवश रोह स्टेशन के आगे चलती रेलगाड़ी से गिर पड़ा। जंजीर खींचकर बच्चे को तलाशा गया, पर लोग बच्चे तक नहीं पहुँच सके। प्रातः काल वह लड़का रेलवे लाइन से थोड़ी दूरी पर रोता हुआ मिला। अपनी माँ को देखकर वह रोता हुआ कहने लगा कि रात-भर तो तूं मेरे पास बैठी थी। अब कहाँ चली गई थी ? बच्चे की बात सुन कर सब समझ गये कि अम्बामाता ने ही बच्चे की माँ का रूप धरकर बच्चे की रक्षा की थी।

आरासुरी अम्बाजी की विमलशाह पर कृपा

अम्बाजी से कोटीश्वर जाने वाले मार्ग में विमलशाह द्वारा निर्मित कुम्भारियाजी के जैन मन्दिर में भी अम्बामाता की मूर्ति विराजमान है। 

दांता का राजवंश परम्परागत रूप से अम्बामाता का उपासक है। दांता राज्य के परमार क्षत्रिय राजवंश द्वारा यात्रियों के सुविधार्थ अनेक व्यवस्था कार्य कराये गये हैं।

कथा 
॥ ॐ कुलदेव्यै नमः ॥ 
  • प्राचीन काल में इस लोक में जब दुष्ट दैत्य महिषासुर उत्पन्न हुआ तो त्रिलोकी उससे त्रस्त हो गई। उसके पापों से पृथ्वी काँपने लगी।
  • तब दयामयी देवी जगदम्बा ने लोक में अवतार लेकर, उस महिषासुर को मारकर अपने भक्तों की रक्षा की। 
  • देवी जगदम्बा हमारी माता है, यही हमारी माता है, यही हमारा श्रेष्ठ आश्रय है, इस प्रकार के वचन प्रसन्नचित मनुष्यों तथा देवताओं द्वारा कहे गये।
  • तब सब जनों ने इस प्रकार प्रार्थना की – हे अम्बे ! आप नित्य इस लोक में ही विराजकर साकार रूप में प्रत्यक्ष दर्शन देती रहें। 
  • माता आरासुर नामक पर्वत पर विराजमान हुई। तब से माता आरासुरी अम्बा के नाम से विख्यात हो गई।
  • राम ने अम्बामाता की पूजा करके अजय नामक अस्त्र प्राप्त करके रावण का वध किया तथा पाण्डवों ने अजयास्त्र पाकर कौरवों का संहार किया। 
  • द्वापर युग में आरासुरी अम्बाजी के धाम पर भगवान श्रीकृष्ण का मुण्डन संस्कार किया गया। तबसे पुत्र के प्रति वात्सल्य भावपूर्ण ह्रदय वाले भक्त वहाँ बच्चों का मुण्डन संस्कार सम्पन्न करने जाया करते हैं। 
  • जो भावनाशील दर्शनार्थी जन भक्तिभाव से माता के दर्शन के लिए जाते हैं, माता की कृपा से उनकी कामनाएँ निश्चित रूप से पूरी होती हैं। 
  • पुत्रहीन पुत्र पाते हैं तथा धनहीन धन प्राप्त करते हैं। रोगी स्वास्थ्यलाभ करते हैं। दुःखी दुःख से मुक्ति पाते हैं। 
  • माता की कृपा से बहुत से भक्तों ने अक्षय धन, सुख-समृद्धि और कष्टों से मुक्ति प्राप्त की। 
  • एक ग्वाला सदा गायें चराता था। गायों के झुण्ड में चरने वाली किसी विलक्षण गाय को देखकर… 
  • उस गाय का अनुसरण करता हुआ वह गब्बर शिखर पर पहुँच गया। वहाँ उसने एक भव्य मन्दिर तथा झूले पर झूल रही दिव्य स्त्री को देखा। 
  • ग्वाले ने उसे गाय की मालकिन समझ कर मधुर वाणी में कहा, मैंने आपकी गाय को चराया है। मुझे गाय को चराने की मजदूरी दीजिये। 
  • गाय की स्वामिनी ने उसके कम्बल में कुछ जौ डाल दिये ग्वाले ने खिन्न होकर जौ रास्ते में फेंक दिये और अपनी पत्नी को सारी कथा कह सुनाई। 
  • तब ग्वाले की पत्नी ने कम्बल में चिपके रह गये कुछ जौ के दाने देखे, जो सोने के हो गये थे। यह देखकर ग्वाला विस्मित हो गया। 
  • वह उस स्थान पर फिर गया। वहाँ न तो स्त्री थी और न मन्दिर।  इसके बाद वह गाय भी नहीं आई, जिसे वह चराया करता था। 
  • एक बार समुद्र में माता के भक्त अखैराज का जहाज जब तूफान से घिर कर डोलता हुआ डूबने लगा, तब… 
  • भक्तों का हित करने वाली माता भगवती ने त्रिशूल से जहाज को बचाकर किनारे लगा दिया।
  • माता ने पुजारी को स्वप्न में सारी बात बताकर उसे वस्त्र बदलने का आदेश दिया। माता ने वस्त्र बदलते समय उन्हें गीला देखकर… 
  • वस्त्र का जल निचोड़कर उसका आचमन किया। जल को खारा जानकर राजा से सारी बात कही। राजा भक्त अखैराज पर माता का वात्सल्य देखकर भावविह्वल हो गया। 
  • तीन सप्ताह बीतने के बाद सेठ अखैराज अम्बाजी के मन्दिर में आया। कृतज्ञ और बुद्धिमान अखैराज ने अपनी आधी सम्पत्ति मन्दिर में भेंट कर दी।
  • भावना से प्रेरित हो विह्वल हुआ अखैराज माता को प्रणाम कर भीगे स्वर में प्रार्थना करने लगा – हे माता ! तुम अपने भक्तों को तारने वाली हो।
  • तुम गतिहीनों की गति हो। पतितों की उन्नति तुम्ही हो। तुम मर रहे व्यक्तियों के लिए जीवन हो तथा भयभीतों के भय को हरने वाली हो।
  •  हे अम्बे ! तुम्हें प्रणाम है। हे धोलागढ़वाली माता ! कृपामूर्ति ! आपको प्रणाम है। चाचर में विराजमान आपको प्रणाम है। हे गब्बर में पूजित माता ! आपको प्रणाम है। 
  • श्रेष्ठमति वाले अखैराज ने माता के श्रृंगार के लिए हीरा अर्पित किया। उसके द्वारा प्रारम्भ की गई अखण्ड ज्योति की व्यवस्था आज तक चल रही है।
  • एक बार महाराणा प्रताप घोड़े पर सवार होकर नदी पार कर रहे थे। वे नदी के जल में एक पेड़ की शाखाओं में फंस गये।
  • महाराणा प्रताप जल में डूबने लगे तो वे अम्बाजी का स्मरण कर, रक्षा के लिए कातर स्वर में पुकारते हुए प्रार्थना करने लगे।
  • हे अम्बामैया ! मेरी रक्षा करो।  हे जगदम्बा ! मुझ शरणागत को बचाओ। हे आरासुरवासिनी आज मुझे तुम्ही बचा सकती हो।
  • अम्बाजी की कृपा से महाराणा वृक्ष की जलमग्न शाखाओं जाल से बचकर निकल गये। मुगलों को जीतकर वे अम्बाजी के दर्शनार्थ जाकर प्रार्थना करने लगे।
  • हे माता ! आपकी कृपा से ही मैं विपत्तिसागर में डूबने से बचा। हे करुणासागर माँ ! तुम्हारा स्नेहयुक्त वात्सल्य विलक्षण है।
  • हे माता ! मेरा यह शरीर तथा मेरे श्वास आपके लिए हैं।  मेरा सारा जीवन आपके लिए है। आपकी कृपा ही मेरा सर्वस्व है।
  •  इस राष्ट्र की स्वाधीनता ही मेरे जीवन का लक्ष्य है। हे माता ! मैं मेवाड़ की स्वतन्त्रता का वर मांगता हूँ। 
  • ऐसा कहकर महाराणा प्रताप ने जीवन के समान प्रिय अपना खड्ग और प्रचुर धन माता की सेवा में अर्पित करके, वहाँ से प्रस्थान किया।
  • महाराणा प्रताप ने अम्बाजी की कृपा से मेवाड़ अपने अधिकार में कर  लिया। इसके बाद उन्होंने अपने राज्य में अम्बाजी का भव्य मन्दिर बनवाया।
  • श्रेष्ठ स्वभाव वाले जैनमतावलम्बी विमलशाह जिनमन्दिर बनाने के लिए उत्कण्ठित थे। अपनी आकांक्षा की पूर्ति के लिए वे माता की शरण में गए।
  • उन्हें भण्डारानामक पहाड़ी स्थान पर गड़ा हुआ स्वर्णभण्डार मिला। उस पूरे धन को उन्होंने मन्दिर बनाने के लिए खर्च कर दिया।
  • उन्होंने कुम्भारिया नामक जिनमन्दिर में अम्बाजी की प्रतिमा स्थापित की। माता की कृपा से वे अपने कार्य में सदा सफल होते रहे।
  • जो भक्त श्रद्धा से अम्बाजी की शरण में आते हैं वे माता की कृपा पाकर सदा सुखी रहते हैं।

कथा समाप्त
॥ ॐ कुलदेव्यै नमः ॥

आशापूरा माता की श्लोकमय कथा – कुलदेवीकथामाहात्म्य

‘कुलदेवीकथामाहात्म्य’

नाडोल की आशापूरा माता 

इतिहास

राजस्थान के पाली जिले में नाडोल कस्बे के पास आशापूरा माता का मन्दिर है। इस मन्दिर की स्थापना नाडोल में चौहानराज्य के संस्थापक लक्ष्मण (लाखनसी) चौहान ने कराई थी। नैणसी की ख्यात के अनुसार लाखनसी चौहान (लक्ष्मण) को नाडोल का राज्य आशापूरा माता की कृपा से ही मिला था।
कर्नल जेम्स टॉड ने नाडोल में चौहान राजवंश की स्थापना से सम्बंधित दो शिलालेख लन्दन की रॉयल एशियाटिक सोसाइटी को भेंट किये थे। वे शिलालेख क्रमशः वि.सं. 1039 (982 ई.) तथा वि.सं. 1024 (967 ई.) के थे। इससे लक्ष्मण की स्थिति दशम शताब्दी में सिद्ध होती है।
कीर्तिपाल के ताम्र अभिलेख में, जो सम्वत् 1218 (1161 ई.) का है, उसमें लक्ष्मण को नाडोल का राजा बताया गया है। अभिलेख का अंश इस प्रकार है –
शाकम्भरीनाम     पुरे     पुरासीच्छ्रीचाहमानान्वयवंशजन्मा। 
राजा महाराजनतांघ्रियुग्मः  ख्यातोSवनौ वाक्पतिराजनामा।।
नड्डूले       समभूत्तदीयतनयः        श्रीलक्ष्मणो       भूपतिः। 

इस प्रकार लक्ष्मण के स्थितिकाल के आधार पर आशापूरा माता के मन्दिर का निर्माणकाल दशम शताब्दी सिद्ध होता है। लक्ष्मण चौहान के समय से चौहान आशापूरा माता को कुलदेवी मानने लगे थे। अन्य अनेक समाजों के विभिन्न गोत्रों में भी आशापूरा माता को कुलदेवी के रूप में पूजा जाने लगा। इस समय आशापूरा माता के उपासकों की संख्या बहुत बड़ी है जो भारत के विभिन्न क्षेत्रों में बसे हुए हैं।

आशापूरा माता का मन्दिर नाडोल कस्बे से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मन्दिर तक पक्की सड़क बनी है। अब प्राचीन मन्दिर के स्थान पर संगमरमर के नवीन भव्य मन्दिर का निर्माण कर दिया गया है। केवल निजमन्दिर को यथावत् रखा  गया है।
मन्दिर के पास ही लाखनसी द्वारा बनवायी गई प्राचीन बावड़ी है। मंदिर -परिसर बहुत बड़ा है जहाँ सत्संग-भवन, विश्राम भवन, भोजनालय आदि पृथक्-पृथक् स्थानों पर बने हैं।

कथा 
॥ ॐ कुलदेव्यै नमः ॥
  • शाकम्भरी (सांभर) राज्य के राजा वाक्पतिराज के श्रेष्ठ गुणों वाले सिंहराज और लक्ष्मण नामक दो पुत्र थे। 
  • बड़ा पुत्र महाबली सिंहराज पिता के बाद सिंहासन पर बैठा। तब छोटे पुत्र लक्ष्मण ने मन में दृढ संकल्प किया। 
  • जब तक जगदम्बा की कृपा से मुझे स्वतन्त्र राज्य नहीं मिलेगा तब तक सामान्य योद्धा की तरह ही जीवन बिताऊँगा। 
  • उस स्वाभिमानी महान योद्धा लक्ष्मण ने यह दृढ व्रत धारण किया। उसने देवीकृपा का ही सहारा लेकर, भाई द्वारा दी गई जागीर को छोड़कर वहाँ से प्रस्थान किया। 
  • चित्त में जगदम्बा का स्मरण करता हुआ और उसी भाव में रमा हुआ वह वीर लक्ष्मण अपनी पत्नी और सेवकों के साथ निरन्तर चलता रहा।
  • देवीभक्त वह लक्ष्मण रात्रि में नाडोलपुरी पहुँचकर नगर के बाहर एक मन्दिर के आंगन में विश्राम करने लगा। 
  • प्रातःकाल उसे जागा देखकर मन्दिर का पुजारी मधुरवाणी में कहने लगा – हे वीर ! हथियारों से सुशोभित तुम कौन हो ?
  • वह बोला – मैं लक्ष्मण हूँ। मुझे लाखनसी भी कहा जाता है। हथियार ही मेरी जीविका का आधार है। मैं सेवाकार्य की खोज में जा रहा हूँ। 
  • हे विप्रदेव ! ये मेरे सेवक हैं और वह मेरी पत्नी है। पुजारी उसके वचन सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने उन सबके लिए आवासादि की व्यवस्था कर दी। 
  • पुजारी की प्रेरणा से नाडोल के महामंत्री ने लक्ष्मण को नाडोल के परकोटे की रक्षा के कार्य हेतु नियुक्त कर दिया। 
  • नाडोल का राजा सामन्तसिंह शासक के कर्त्तव्य से विमुख, युद्ध में धैर्य धारण करने में असमर्थ और मूढ था। वह सदा भोगविलास में रत रहता था। 
  • नाडोल की प्रजा लूटेरों से पीड़ित थी। वह सदा भयभीत और व्यथा से आकुल रहती थी। लक्ष्मण के उत्तम स्वभाव और बल के कारण प्रजा शीघ्र ही उसके प्रति आकृष्ट हो गई।
  • लक्ष्मण के पास सेना की एक छोटी सी टुकड़ी थी। फिर भी वह अपने कर्त्तव्य का पालन करता हुआ महान प्रयास से नगर की रक्षा करने लगा।
  • बुद्धिमान लक्ष्मण ने नाडोलनरेश से कहा – हे राजन ! सेना के बल की वृद्धि के लिए घोड़े लाये जाने चाहिए।
  • राजा ने कहा कि घोड़े खरीदने के लिए धन नहीं है। यह सुनकर अजेय योद्धा लक्ष्मण उद्विग्न हो गया।
  • लक्ष्मण ने ह्रदय में विचार किया कि यदि राजा राजधर्म का पालन नहीं करता तो उसका शासन करना ही व्यर्थ है।
  • एक बार मेदसंज्ञक भयानक लड़ाकू लुटेरों ने नगर को लूटने के लिए अचानक भीषण आक्रमण कर दिया।
  • लूटेरों के आक्रमण को देखकर योद्धा लक्ष्मण के नेत्र क्रोध से लाल हो गए। उसने सेना के साथ लुटेरों का प्रतिरोध किया।
  • लक्ष्मण की सेना के पास न तो घोड़े थे और न श्रेष्ठ हथियार। फिर भी उसने लक्ष्मण के नेतृत्व में लूटेरों का प्रतिरोध किया।
  • लक्ष्मण के वीर योद्धाओं ने क्रोध से उन आततायी दस्युओं पर तीव्र गति से आक्रमण किया तथा उन्हें नगर से दूर खदेड़ दिया।
  • लक्ष्मण की सेना भागते हुए लूटेरों का पीछा करने लगी। नगर के परकोटे से दूर खुले मैदान में दस्युओं के साथ उसका फिर प्रचण्ड युद्ध हुआ।
  • तब लक्ष्मण की वह अश्वहीन और थोड़े हथियारों वाली सेना, उन श्रेष्ठ हथियारों वाले घुड़सवार दुष्ट लूटेरों द्वारा युद्धभूमि में नष्ट कर दी गई।
  • अश्वहीन लक्ष्मण के भी हथियार नष्ट हो गये। उसका थका हुआ शरीर घावों से भर गया था। वह मूर्च्छित होकर युद्ध के मैदान में गिर पड़ा।
  • अहो ! उसके बाद बेसहारा और दीन प्रजा को लूटेरों ने लूट लिया, किन्तु वह अयोग्य राजा चित्त में लज्जित न हुआ।
  • तब देवीभक्त, प्रजाप्रिय और लोकानुरागी लक्ष्मण अनन्यचित्त होकर देवी की आराधना में लीन हो गया।
  • लक्ष्मण प्रार्थना करने लगा – हे माता ! आज नगरी में सब लोग बेसहारा, निराश, दीन और दुःखी हैं। उनकी रक्षा की आशा को पूरी करने के लिए तैयार हुआ तेरा पुत्र यह लक्ष्मण भी निराश है। . हे आशा पूरी करने वाली माँ ! सबकी आशा पूरी करो।
  • बुद्धिमान लक्ष्मण ने इस प्रकार प्रार्थना करते-करते जगदम्बा की सेवा में आत्मनिवेदन किया।
  • आशा पूरी करने वाली जगन्माता शाकम्भरी लक्ष्मण पर संतुष्ट हुई। माता ने उसे अभीष्ट वरदान दिया।
  • माता की कृपा से वहाँ तेरह हजार घोड़े प्रकट हो गये। घोड़ों के समूह को देखकर लक्ष्मण की व्यथा मिट गई।
  • हे वत्स ! इन घोड़ों पर केसरयुक्त जल छिड़को, ‘ जगदम्बा की ऐसी वाणी लक्ष्मण को सुनाई दी।
  • लक्ष्मण ने घोड़ों पर केसरयुक्त जल छिड़का। इससे उनका प्राकृतिक रंग बदल गया।
  • महाबली लक्ष्मण सेना को संगठित करके लूटेरे मेदों का जड़ से उन्मूलन करने में लग गया।
  • ग्राम-ग्राम, नगर, वन-पर्वतों में जहाँ-जहाँ लूटेरे रहते थे उन सबको मार डाला।
  • नाडोल की प्रजा लक्ष्मण के इस श्रेष्ठ कार्य से संतुष्ट हुई।  प्रजा ने उसे नाडोल का राजा बनाकर उसका अभिनन्दन किया।
  • देवी ने प्रजा और लक्ष्मण दोनों की आशा पूरी की। प्रजा तो सब व्यथाओं से मुक्त हो गई और लक्ष्मण नाडोल का प्रजापालक शासक बन गया।
  • नाडोल नगर में राजा और प्रजा द्वारा शाकम्भरी देवी की आशापूरा नाम से नित्य पूजा और वन्दना की जाने लगी।
  • नरश्रेष्ठ महाराजाधिराज लक्ष्मण ने एक बावड़ी बनवाकर उसके पास ही आशापूरा माता का भव्य मन्दिर बनवाया। वह मंदिर सब आशाओं को सफल करने वाला था। माता का दर्शन पाकर सब लोग आनन्दित हो गये।
  • आशापूरा माता के कृपापात्र उस महान राजा ने शोभित नामक श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त किया। उसके बाद दूदा नामक दूसरा पुत्र हुआ।
  • उसने बड़े बेटे शोभित को युवराज पद दिया तथा छोटे बेटे दूदा को भण्डारी का पद दिया।
  • भक्तिपरायण दूदा भण्डारी ने जैनमत स्वीकार कर लिया। सदा आशापूरा माता के भक्तिभाव में लीन रहने वाले दूदा भण्डारी ने माता की परमकृपा प्राप्त की।
  • जैसे सूर्य लोक में व्याप्त अन्धकार को नष्ट कर देता है वैसे ही आशापूरा माता भय, दरिद्रता और मानसिक व्यथा को नष्ट कर देती है। वह माता भक्त-वत्सला है।
  • आशापूरा माता अपने करुणामय स्वभाव से विवश होकर सबको उत्तम समृद्धि देती है। माता का अपात्र पुत्रों पर भी अकारण स्नेह होता है।
  • जो भक्त सदा श्रद्धा से माता का ध्यान करते हैं, अनन्यचित्त वाले वे भक्त तो माता की अलौकिक कृपा प्राप्त करते हैं।

कथा समाप्त
॥ ॐ कुलदेव्यै नमः ॥

करणीमाता की श्लोकमय कथा व इतिहास – कुलदेवीकथामाहात्म्य

‘कुलदेवीकथामाहात्म्य’ 

देशनोक की करणीमाता 

इतिहास

करणीमाता का मन्दिर

करणीमाता का मन्दिर राजस्थान के बीकानेर शहर से लगभग 33 कि.मी. दूर देशनोक में स्थित है। बीकानेर-जोधपुर रेलमार्ग पर यह छोटा रेलवे स्टेशन है। देश-विदेश के असंख्य श्रद्धालु करणीमाता के दर्शन कर मनोवाञ्छित फल पाने के लिए देशनोक आते हैं। करणीमाता बीकानेर के राठौड़ राजवंश की कुलदेवी के रूप में पूजित हैं। राव बीका द्वारा बीकानेर राज्य की स्थापना, उसके विस्तार और विकास में करणीमाता की कृपा मुख्य कारण रही है। तब से इस विषय में एक कहावत प्रसिद्ध है-
आवड़ तूठी भाटियां कामेही गोड़ांह।
श्री बरवड़ सीसोदियां करणी राठौड़ांह।।

करणीमाता का जन्म व विवाह

मेहाजी चारण की छठी पुत्री के रूप में वि.सं. 1444 में आश्विन शुक्ला सप्तमी (तदनुसार 20 सितम्बर 1387) के दिन हुआ था। उनका  विवाह साठीका ग्राम के निवासी दीपोजी के साथ हुआ, पर वे वैवाहिक जीवन से विरक्त रहीं। उनकी प्रेरणा से दीपोजी का विवाह उनकी छोटी बहन गुलाब के साथ हुआ। करणीजी ने छोटी बहन के चारों पुत्रों को पुत्रवत् माना। ये चारों पुत्र बारी-बारी एक-एक मास तक करणीमाता की सेवा में रहते थे। बाद में वे ही करणीमाता के मन्दिर के पुजारी बने। अब उन्हीं के वंशज बारी-बारी मन्दिर में पूजा करते हैं।

करणीमाता का देहावसान

करणीमाता द्वारा चैत्र शुक्ला नवमी सं. 1595 (तदनुसार 23 मार्च 1538 को, 151 वर्ष की आयु में ) में लौकिक शरीर त्याग दिया गया था। चैत्र शुक्ला चतुर्दशी को देशनोक के उसी गुम्भारे में उनकी प्रतिमा स्थापित की गई, जिसमें वे निवास किया करती थीं। उस गुम्भारे का निर्माण उन्होंने अपने हाथों से किया था। कालान्तर में उसी गुम्भारे के ऊपर मन्दिर बना जिसका क्रमशः विकास होता रहा।

करणीमाता मन्दिर का विकास

सर्वप्रथम बीकानेरनरेश राव जैतसी ने गुम्भारे के ऊपर कच्ची ईंटों के मन्दिर का निर्माण कराया था। उन्होंने करणीमाता की कृपा से बाबर के पुत्र कामरान पर विजय प्राप्त की थी। उसी विजय के उपलक्ष्य में निर्माण कार्य कराया गया। तत्पश्चात् बीकानेरनरेश सूरतसिंह ने माता की कृपा से मराठों पर विजय प्राप्त की। उन्होंने राव जैतसी द्वारा कराये गए निर्माण के स्थान पर पक्का निर्माण कराया। वर्तमान मन्दिर उसके  परकोटे तथा मुख्य प्रवेशद्वार का निर्माण उन्हीं के शासनकाल में हुआ। तत्पश्चात् बीकानेरनरेश गंगासिंह के शासनकाल में सेठ चांदमल ढड्ढा ने सफेद संगमरमर के भव्य कलात्मक द्वार का निर्माण कराया। इस प्रकार करणीमाता का वर्तमान मन्दिर स्वयं करणीमाता द्वारा अपने आवास हेतु निर्मित गुम्भारे का विकसित रूप है।

अन्धे बन्ना खाती ने बनाई करणीमाता की प्रतिमा

गुम्भारे में प्रतिष्ठापित करणीमाता की मूर्ति का निर्माण जैसलमेर के बन्ना खाती द्वारा किया गया था। यह मूर्ति जैसलमेरी पत्थर से निर्मित है। बन्ना खाती अन्धा हो गया था। उसे करणीमाता ने दृष्टि प्रदान कर दर्शन दिए। बन्ना ने माता का जिस रूप में दर्शन किया, उसी रूप को पत्थर कर उत्कीर्ण कर दिया। मूर्ति में करणीमाता के चेहरे पर सौम्य मुस्कान है। नेत्र मुद्रित हैं। सिर के मुकुट पर छत्र बना हुआ है। गले में हार और दुलड़ी मोतियों की माला है। हाथों में भुजबन्ध और चूड़ा है। पैरों में पायल और कमर में करधनी है। कांचली व धाबलिया वस्त्र धारण किये हुए हैं। दाहिने हाथ में त्रिशूल है, जिसके नीचे महिषासुर का सिर है। बायें हाथ में नरमुण्ड की चोटी पकड़े हुए हैं।
करणीमाता की मूर्ति के बिल्कुल पास में काला और गोरा भैरव हैं। दाहिनी तरफ करणीमाता की पाँच बहनों की मूर्तियाँ तथा आवड़जी की मूर्तियाँ पत्थर पर खुदी हुई स्थापित हैं।

करणीमाता की आरती व चिरजा

मन्दिर में प्रतिदिन होने वाली आरती के अतिरिक्त प्रत्येक मास में शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को विशेष पूजा व भोग-आरती होती है तथा जागरण होता है। जागरण में माताजी का गुणगान होता है, जिसे चिरजा कहते हैं।

देशनोक की तेमड़ाराय और नेहड़ीजी

देशनोक में करणीमाता से सम्बद्ध दो और स्थान हैं। पहला ‘आई माँ तेमड़ाराय’ का मन्दिर है। मन्दिर में तेमड़ाराय की मनोहर प्रतिमा है। चौकोर पाट पर सातों बहनों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। करणीमाता का करण्ड वहीं पर स्थित है। दूसरा स्थान ‘नेहड़ीजी’ हैं देशनोक की स्थापना से पहले करणीमाता पास के बीड़ में रहती थी। वहाँ उन्होंने दही बिलोने के लिए नेहड़ी के रूप में खेजड़ी की गीली लकड़ी रोपी थी। वह नेहड़ी हरी-भरी खेजड़ी हो गई। सदियों से उस खेजड़ी की ‘नेहड़ीजी’ नाम से पूजा हो रही है।

चूहों वाली माता – करणीमाता ( The Rats Temple )


करणीमाता के मन्दिर की एक विलक्षण विशेषता यहाँ स्वच्छन्द विचरण करते चूहे हैं। उन्हें काबा कहा जाता है। इस विषय में श्री रघुनाथप्रसाद तिवाड़ी अपनी पुस्तक ‘ हमारी कुलदेवियाँ ‘ में लिखते हैं – “माताजी के मन्दिर में काबे (चूहे) बहुत हैं, जो सर्वत्र मन्दिर भर में स्वतन्त्रतापूर्वक विचरण करते हैं। इनकी अधिकता के मारे दर्शनार्थियों को बहुत बच-बचकर मन्दिर में चलना पड़ता है, जिससे वे दबकर मर न जायें। कहते हैं, देवीजी के वंशज चारण लोग ही मरने पर काबा हुआ करते हैं और फिर काबे से चारण होते हैं। यमराज पर क्रोधित होने के कारण ही उन्होंने अपने वंशजों के लिए ऐसा प्रबन्ध किया था। यही कारण है कि लोग इन्हें भी आदर की दृष्टि से देखते हैं और श्रद्धानुसार दूध मिठाई आदि खिलाया करते हैं। इन चूहों के कारण लोग इन्हें चूहों वाली माता भी कहते हैं।  इन चूहों के बीच कभी-कभी सफेद चूहे के रूप में घूमती देवीजी भी भक्तों को दर्शन दिया करती हैं। ”

ये काबे मन्दिर की मर्यादा से मर्यादित हैं। ये मुख्य द्वार से बाहर नहीं जाते हैं। इसलिए कहा जाता है – ‘काबा कार  लोपे नहीं।’

गोरक्षक दशरथ मेघवाल का देवरा

मन्दिर के अन्तः प्रकोष्ठ के पार्श्व भाग में करणीमाता के ग्वाले दशरथ मेघवाल का देवरा है। दशरथ मेघवाल लुटेरे कालू पेथड़ से गायों को बचाने के संघर्ष में मारा गया था। भक्तवत्सल माता ने उसकी सेवा का सम्मान करते हुए उसकी स्मृति को अमिट बना दिया।

सावण – भादवा कड़ाव


दशरथ के देवरे के पास ही दो बड़े कड़ाव रखे रहते हैं। इन्हें सावण- भादवा कहा जाता है। इन कड़ावों में माता का प्रसाद बनता है। सावण-भादवा के पास ही हवनशाला है, जहाँ दुर्गाष्टमी को हवन होता है।

कथा 
॥ ॐ कुलदेव्यै नमः ॥ 
मारवाड़ क्षेत्र में सुवाप नामक ग्राम में मेहा नामक चारण रहता था। वह श्रेष्ठ सात्त्विक स्वभाव वाला और हिंगलाजमाता का परमभक्त था।
उसके पाँच कन्यायें थीं। वह पुत्र प्राप्त करना चाहता था। पुत्रप्राप्ति की कामना से वह प्रतिवर्ष नियम से हिंगलाज माता के धाम हिंगुलालय जाया करता था।
वह माता के दरबार में जा-जाकर प्रार्थना करता – हे माता! मुझे ऐसा पुत्र दीजिये जो मेरे नाम को विख्यात करे।
वह पुत्र मेरी वंशपरम्परा को आगे चलाये तथा मेरे वंश की शोभा बढ़ाये। तब मेहाजी चारण के घर में हिंगलाजमाता के अवतार के रूप में एक पुत्री का जन्म हुआ।
देवताओं की ईश्वरी आदिशक्ति ने पहले माता (मेहाजी की पत्नी देवल देवी) को चतुर्भुज रूप में दर्शन दिये। तत्पश्चात् कन्या रूप में जन्म लिया।
अहो ! यह (छठी सन्तान) भी कन्या ही हुई। कुल में एक और शिला आ पड़ी। इस प्रकार मेहाजी की बहन दुःखी होकर कठोर वचन बोलने लगी। 
कन्या के लिए ऐसे निन्दापूर्ण वचन बोलकर उसने अंगुली को टेढ़ी करके अपने सिर पर चोट की। उसकी अंगुली टेढ़ी ही रह गई। उसे कन्या की निन्दा करने का फल मिल गया।
सांवले रंग की वह कन्या दिव्य तेज से समृद्ध थी। उसका नाम ऋद्धि रखा गया। और वह नाम सार्थक हो गया।
पुत्री के जन्म के बाद उसके पिता मेहाजी का भाग्य बढ़ने लगा। उनका घर पशुओं तथा धन-धान्य से समृद्ध हो गया।
तत्पश्चात् उस कन्या ऋद्धिबाई के दो भाई जन्मे। तब लोग कहने लगे कि मेहाजी धन्य हैं, जिन्हें भाग्यवृद्धि करने वाली पुत्री मिली।
इनकी हिंगलाजमाता के दर्शनार्थ की गई सब यात्राएँ सफल हो गई। सारे मनोरथ सफल हो गये। कुल के दीपक बुद्धिमान मेहाजी का जन्म सफल हो गया।
सात वर्ष बीत गए। तत्पश्चात् किसी दिन ऋद्धि की बुआ ससुराल से अपने भाई के घर आई।
बुआ के मन में बहुत पीड़ा थी। वह सोचती थी- हाय ! मुझ मूर्खा के द्वारा इस विनीत और भाग्यशालिनी कन्या की निन्दा क्यों की गई।
भाग्यवृद्धि पुत्रजन्म के अधीन नहीं है। बेटी भाग्यहीनता की सूचक नहीं होती। सौभाग्य तो पुण्य के अधीन होता है। कन्याएँ तो देवी का रूप होती हैं।
इस प्रकार सोचती हुई बुआ कन्या ऋद्धि से स्नेह करती थी। ऋद्धि के मन में तो उसके लिए दिव्य प्रेम था।
एक बार बुआ ऋद्धि की केशसज्जा कर रही थी। ऋद्धि ने उससे कहा कि आपकी इस टेढ़ी अंगुली से मुझे तकलीफ हो रही है।
ऋद्धि ने ऐसा कहकर बुआ की उस टेढ़ी अंगुली का स्पर्श किया। स्पर्श होते ही उसकी टेढ़ी अंगुली फिर से पहले की तरह ठीक हो गई।
बेटी ! तुम तो निश्चित रूप से करणी (करामाती) हो। तुम्हारा यह कार्य अद्भुत है। बुआ के इस प्रकार कहने से ऋद्धि गाँव में करणी नाम से विख्यात हो गई।
एक बार कन्या करणीजी पिता का भोजन लेकर खेत जा रही थी। रास्ते में उन्हें शेखाजी नामक राजा सेना के साथ जाते हुए सामने मिले। राजा सामने खाद्यसामग्री मिलने को शुभ शकुन मानकर आनन्दित हुए।
राजा ने कहा – हे कन्या ! शकुन के लिए मुझे एक रोटी दे दो। राजा की बात सुनकर करणीजी ने कहा – आप सब लोग रोटियाँ ग्रहण करें।
ऐसा कहकर कन्या करणीजी ने सबको दही के साथ एक-एक रोटी दे दी। उनका भोजन वाला पात्र ज्यों का त्यों भरा ही रहा।
राजा को विस्मित देखकर कन्या करणीजी कहने लगीं – हे राजन् ! आश्चर्य मत करो। यदि कोई संकट आ पड़े तो मुझे याद कर लेना।
युद्ध में हारते हुए राजा शेखाजी ने करणीजी को याद कर विजय हासिल की। करणीजी ने सिंहरूप में उनकी सहायता की।
करणीजी ने सर्प द्वारा डसे हुए पिता को हाथ से दिव्य स्पर्श करके उनकी प्राणरक्षा की। सब लोग विस्मित हो गये।
युवावस्था में करणीजी का विवाह साठिका ग्राम के निवासी दीपोजी नामक सद्गुणों से सम्पन्न युवक के साथ हुआ।
विवाह के पश्चात् एकान्त में पति से बात करते हुए करणीजी ने कहा कि मेरा गृहस्थधर्म भोगविलास के लिए नहीं अपितु केवल लोकहित के लिए है।
आपका विवाह मेरी छोटी बहन के साथ हो जाएगा। तत्पश्चात् करणीजी ने पति को शक्तिरूप में दिव्यदर्शन दिया।
दीपोजी ने दिव्यरूपधारिणी भुवनेश्वरी करणीजी को प्रणाम किया। तत्पश्चात् उनकी छोटी बहन गुलाबबाई के साथ उनका विवाह सम्पन्न हुआ।
एक बार अकाल पड़ने के कारण दीपोजी ने गायों को बचाने के लिए गाँव को छोड़कर, परिजनों और गायों के साथ जांगलू राज्य के लिए प्रस्थान किया।
उस जांगलू राज्य में कान्हाराव नामक दुष्ट और प्रजा को पीड़ित करने वाला शासक था। उसके सेवकों  ने दीपोजी की प्यासी गायों को पानी नहीं पीने दिया।
राजा का छोटा भाई रणमल्ल गोभक्त था। वह गोपालकों के साथ गायों के आगमन की बात सुनकर श्रद्धा के साथ वहाँ आया।
गायों ने जल पी लिया।  करणीजी प्रसन्न भाव से रणमल्ल के आग्रह को मानकर गायों के साथ गोचरभूमि (बीड़) में पहुँच गई।
गोचरभूमि में भेजने की बात राजसेवकों ने राजा कान्हाराव को कह सुनाई। कान्हाराव ने गोचरभूमि में जाकर करणीजी को आदेश दिया।
जाओ। तुम मेरा राज्य छोड़कर चली जाओ। अन्यथा मेरे सिपाही तुम्हें बन्दी बना कर ले जाएंगे। यह बात सुनकर वह बोली।
घास लोक की सम्पत्ति है। राजा लोकसेवक होता है। प्रजा का पालन करना राजा का राजपद से जुड़ा हुआ कर्त्तव्य है।
अब आप मेरी पूजा की पेटी को बैलगाड़ी में रख दें। मैं चली जाऊँगी। राजा ने तुरन्त पूजापेटी को उठाकर बैलगाड़ी में रखने का प्रयत्न किया, किन्तु वह पेटी को उठाने में सफल न हो सका। राजा लज्जित होकर क्रोध से बोला- यह क्या जादू दिखा रही हो ?
यदि तुम्हारे पास चमत्कार है तो मेरी मृत्यु कब होगी ? यह बताओ। तब करणीजी ने कान्हाराव से कहा –
हे दुर्बुद्धि वाले राजा ! तेरा जीवन एक वर्ष तक का है, फिर भी यदि तुम जल्दी मृत्यु चाहते हो तो सुनो।
तुम्हारी इच्छा पूरी करने के लिए मैं धरती पर लकीर खींच रही हूँ। हे दुर्जन ! यदि तुम इस जीवनरेखा का उल्लंघन करोगे तो …
उसी समय मृत्यु निश्चित है। तुम्ही निर्णय कर लो। कान्हाराव ने उस रेखा को लांघा और उसी समय मृत्यु को प्राप्त हुआ।

रणमल्ल के द्वारा प्रार्थना करने पर करणीजी ने कान्हाराव को पुनः जीवनदान दिया। करणीजी ने कहा – तुम तुरन्त इस राज्य को छोड़कर चले जाओ।
तुम राजपद को कलङ्कित कर रहे हो। तुम्हारे पास राजा की योग्यता नहीं है। जो पृथ्वी का पालन करे, वह भूप कहलाता है। जो प्रजा को प्रसन्न रखे वह राजा कहलाता है।
यदि अब तुम इस राज्य में रहोगे, इसे छोड़ने में विलम्ब करोगे और जाते समय पीछे मुड़ कर देख लोगे तो तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी।
करणीमाता का आदेश सुनकर कान्हाराव मृत्यु के भय से भागने लगा, किन्तु राज्य के लोभ से मोहित होकर मार्ग के बीच में रुक गया।
और वह वहीं मृत्यु को प्राप्त हुआ। इसके बाद जगदम्बा करणीमाता की कृपा से रणमल्ल जांगलू देश का राजा हुआ।
करणीमाता ने उसे पहले राजा कहकर सम्बोधित  किया था।  वह सम्बोधन सार्थक हो गया। उसका आग्रह स्वीकार कर करणीमाता वहीं रहने लगी।
करणीमाता ने दही बिलोने के लिए खेजड़ी की एक शाखा रोपी। वह पवित्र शाखा हरी-भरी हो गई।
उसकी श्रद्धालुजनों द्वारा नेहड़ीजी नाम से पूजा-अर्चना की जाती है। वहाँ भक्तजनों की सब कामनाएँ पूरी होती हैं।
करणीमाता ने गायों के चरने की सुविधा के लिए उस बीड़ में रहना छोड़ दिया। वहाँ से प्रस्थान कर वे कुछ दूर रहने लगीं।
इसके बाद करणीमाता देशनोक नामक एक छोटे गाँव ( ढाणी ) को बसाकर गुम्भारे में तप करने लगीं।
करणीमाता वहाँ तेमड़ाराय माता का श्रीमंढ बनाकर उसमें अपना करण्ड स्थापित कर पूजा करने लगीं।
करणीमाता ने गायें लूटने वाले कालू पेथड़ नामक एक लुटेरे का वध किया और गायों को छुड़ाया।  गायों की रक्षा करते हुए वीरगति पाने वाले दशरथ मेघवाल को भवसागर से पार कर दिया।
उनकी बहन गुलाब के चारों बेटे बारी-बारी उनकी सेवा किया करते थे। उनमें सबसे छोटा पुत्र लाखन कोलायत सरोवर के जल में ..
डूब गया। माता ने उसकी मृत्यु से रक्षा की।  एक बार भक्त झगडूशाह के जहाज को हाथ का सहारा देकर समुद्र में डूबने से बचा लिया।
जांगलूनरेश रणमल्ल करणीमाता की कृपा से मण्डोर के अधिपति बन गये। उनके बाद उनके पुत्र जोधा मण्डोर के शासक बने।
जोधा ने जोधपुर शहर और मेहरानगढ़ किले की स्थापना के लिए करणीमाता को आमन्त्रित कर उनसे शिलान्यास कराया।
जोधाराव का पुत्र बीका पिता के व्यंग्यवचनों से खिन्न होकर, उसका राज्य छोड़ करणीमाता की शरण में चला गया।
करणीमाता ने महाबली बीका को आशीर्वाद दिया। तब बीका ने सुन्दर बीकानेर राज्य की स्थापना की।
करणीमाता ने कृपा करके दुर्ग का शिलान्यास किया। करणीमाता की कृपा से बीका का राव शेखा की कन्या के साथ …
पूगलनामक नगर में सानन्द विवाह हुआ। करणीमाता ने ही शत्रु के नगर में कैद राव शेखा की रक्षा की।
करणीमाता ने जैसलमेरनरेश की पीठ में स्थित अदीठ का उपचार करने के लिए जाते समय रास्ते में ही शरीर त्याग दिया।
भक्तवत्सल करणीमाता दिव्य रूप में वहाँ गई। जैसलमेरनरेश का उपचार करके वहीं अंतर्धान हो गईं।
कृपामयी करणीमाता जैसलमेर निवासी बन्ना खाती के घर गईं। उन्होंने बन्ना खाती को दृष्टि प्रदान की। उसने माता की मूर्ति का निर्माण किया।
श्रद्धालुजनों ने करणीमाता की उस प्रतिमा को देशनोक के गुम्भारे में स्थापित किया। माता वहाँ भक्तों की कामना पूरी करते हुए विराज रही हैं।
बाबर के बेटे कामरान मुगल ने जब भटनेर पर आक्रमण किया तो बीकानेर-नरेश जैतसी बहुत दुःखी हुए।
वे करणीमाता की शरण में आकर उनकी शक्ति से अनुप्राणित हुए। जैतसी ने कामरान को पराजित किया तथा करणीमाता के गुम्भारे पर श्रीमंढ का निर्माण कराया।
जब सुल्तान औरंगजेब ने बीकानेरनरेश कर्णसिंह की  हत्या की इच्छा से षड़्यन्त्र किया तब करणीमाता ने उनकी रक्षा की।
महाराज कर्णसिंह ने औरंगाबाद नामक नगर में अपने शिविरस्थल में करणीमाता का मन्दिर बनवाया।
बीकानेरनरेश सूरतसिंह ने कुलदेवी करणीमाता की कृपा से सीकर की लड़ाई में मराठा-सेना को हराकर विजय के उपलक्ष्य में श्रीमंढ की सुन्दर प्राचीर का निर्माण कराया।
अब तक अनेक भक्तों ने करणीमाता की कृपा से मनोवांछित फल पाया है। युगों-युगों तक भक्त मनोवांछित फल पाते रहेंगे।
करणीमाता की कृपा से जन्मान्ध दृष्टि पाकर, निर्धन धन पाकर और निःसंतान पुत्र प्राप्त कर आनन्दित होते हैं।

कथा समाप्त
॥ ॐ कुलदेव्यै नमः ॥

जीणमाता की श्लोकमय कथा व इतिहास – कुलदेवीकथामाहात्म्य

‘कुलदेवीकथामाहात्म्य’

जीणमाता

इतिहास

जीणमाता का शक्तिपीठ राजस्थान के सीकर शहर से दक्षिण-पूर्व कोण में गोरियाँ रेलवे स्टेशन व बस-स्टैण्ड से 16 कि.मी. दूर एक ओरण पर्वत में स्थित है। शक्तिपीठ उत्तर, पश्चिम और दक्षिण तीन ओर से अरावली पर्वतमाला से घिरा हुआ है। इसका मुख्य प्रवेशद्वार पूर्व दिशा में है। निज मन्दिर पश्चिमाभिमुख है।
इतिहासकारों की मान्यता के अनुसार यह पौराणिक जयन्तीमाता का शक्तिपीठ है। जयन्ती भगवती दुर्गा का ही एक नाम है।  इस बारे में एक विख्यात श्लोक इस प्रकार है –
जयन्ती  मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी। 
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते।।
इतिहासकार इस शक्तिपीठ के इतिहास के प्रसंग में राजकुमारी जीण और उसके भाई घांघूनरेश हर्ष की कथा का उल्लेख करते हैं।  कथा के अनुसार जीण ने यहाँ तपस्या की तथा उसके भाई हर्ष ने हर्षपर्वत पर।  शक्तिपीठ में तपस्या करते-करते जीण दिव्यदेह धारण कर जयन्तीमाता के स्वरूप में समा गई। तबसे यह शक्तिपीठ जीणमाता का मन्दिर कहलाने लगा।
जीणमाता अनेक समाजों में कुलदेवी के रूप में पूजित हैं। विभिन्न समाजों के विवरण में जीणमाता का उल्लेख, जीण, जीवण और जीणाय तीन प्रकार से मिलता है। जीणमाता के लोकप्रसिद्ध लोकगीत में माता के जीण और जीवण दोनों नाम आए हैं। जैसे- (1)  हरस बड़ो और छोटी जीण, (2) थारी मनायी जीवण ना मनै, (3) जुग जीवणमाता ए, (4) जुग जीण माता ए।
जीणाय शब्द जीण शब्द के साथ देवीवाचक ‘आय’ शब्द जुड़ने से बना है। इस तरह के सकराय, सच्चियाय आदि शब्द राजस्थानी भाषा में प्रयुक्त होते हैं।

अत्यन्त प्राचीन है जीणमाता का शक्तिपीठ

जीणमाता का यह शक्तिपीठ अत्यंत प्राचीन है। मूल मन्दिर की निर्माणतिथि अज्ञात है। समय-समय पर मन्दिर के परिसर में निर्माण कार्य होते रहने के कारण मन्दिर का मूल स्वरूप लुप्त हो गया है। केवल गर्भगृह एवं मण्डप अपने मूल रूप में शेष हैं। मन्दिर के जीर्णोद्धार के स्तम्भलेखों से मन्दिर की प्राचीनता का संकेत मिलता है। सारे शिलालेखों की संख्या 8 है। इनमें सबसे पुराना शिलालेख विक्रम सम्वत् 1029 का तथा सबसे बाद का वि.सं. 1699 का है। माता का श्रीविग्रह महिषमर्दिनी का है।
जीणमाता के उपासक सम्पूर्ण देश में विभिन्न प्रदेशों में बसे हैं। वे अपनी कुलदेवी के दरबार में समय-समय पर आते रहते हैं। डॉ. राघवेन्द्रसिंह मनोहर के शब्दों में – ‘उनका मन्दिर जन-जन की आस्था का केन्द्र है। यों तो प्रतिदिन सैंकडों यात्री देवी के दर्शनार्थ वहाँ आते हैं, पर चैत्र और आश्विन दोनों नवरात्रों में वहाँ विशाल मेले लगते हैं। जिनमे लाखों श्रद्धालु सपरिवार विवाह की जात, बालकों के जडूले और मनोवांछित फल पाने एवं मनौतियां मनाने जीणमाता के मन्दिर में आकर अपनी श्रद्धाभक्ति निवेदित करते हैं। ‘
जीणमाता की महिमा के विषय में श्री रघुनाथप्रसाद तिवाड़ी का यह कथन उल्लेखनीय है –
‘उनके चमत्कारों की एक लम्बी कहानी है। असंख्य नर-नारी उन्हें पूजते हैं। भक्तों की मनोकामना पूरी होती है।

भाई-बहन की अनूठी प्रेमगाथा भक्तगण बड़ी तन्मयता से सुनते-सुनाते हैं, माता का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं, मनौती माँगते हैं और वांछित फल पाते हैं। आज भी माता के अलौकिक चमत्कार देखे जाते हैं।’

कथा 
॥ ॐ कुलदेव्यै नमः ॥ 
अति रमणीय मारवाड़ क्षेत्र में घाँघूराव  नामक एक महाबली वीर हुआ। उसने अपने नाम से घाँघूराज्य स्थापित किया तथा घाँघूपुरी नामक नगरी बसाई। 
महान बुद्धिमान और योद्धा घाँघूराव की राजधानी घाँघूपुरी अत्यंत सुरम्य और मनोहर थी। वह मारवाड़ में विख्यात हो गई। 

घाँघूराव के हर्ष नामक एक पुत्र तथा जीवणकुँवरी नामक दिव्य शोभा से सुशोभित पुत्री थी। दोनों भाई-बहन में परस्पर महान प्रेम था।  


  • जीवण सुन्दर स्वरूप तथा श्रेष्ठ स्वभाव वाली कन्या थी। उसके ह्रदय में भगवती जगदम्बा की पराभक्ति विद्यमान थी।
  • हे माँ ! तुम्हीं जयन्ती, मंगला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा विभिन्न नामों से विख्यात हो।  तुम्हें नमस्कार है।
  • इस मंत्र के जप में सदा मनोयोग से लगी रहती थी। वह मंत्र के भाव में ही डूबी रहती थी। परम अनुराग से परिपूर्ण ह्रदय से वह सदैव माँ को भजती रहती।
  • माता-पिता और प्रिय भाई हर्ष उसे लाड़-प्यार से जीण कह कर ही बुलाते थे। वह जीण नाम से ही विख्यात हो गई।
  • आभलदे नामक एक कुलीन कन्या थी, जिसे अपने सुन्दर रूप का बहुत गर्व था। उसके साथ राजकुमार हर्ष का विवाह सम्पन्न हुआ।
  • दुर्भाग्यवश घाँघूराव हर्ष के विवाह के समय ही बीमार पड़ गये। मृत्यु के समय वे भावविह्वल होकर पुत्र हर्ष से कहने लगे –
  • हे पुत्र ! मैं  शरीर त्याग रहा हूँ।  काल महान बलवान है। किन्तु बेटी जीण को देखकर चित्त में बहुत दुःख हो रहा है।
  • तुम्हारी बहन जीण चिड़िया के समान सरल और भोली है। वह भगवती की भक्ति में ही लगी रहती है। उसे भक्ति में ही आनन्द आता है। दुनियादारी का ज्ञान उसे बिल्कुल नही है।
  • हे बुद्धिमान पुत्र ! यदि जीण के स्वभाव से अनजान तुम्हारी पत्नी उस पर नाराज हो, तो तुम जीण का बचाव करना। 
  • अहो ! वह मेरे साथ ही खेलती है। मेरे बिना खाना भी नहीं खाती। मैं उसे छोटी उम्र में ही त्यागकर परलोक जा रहा हूँ।
  • हर्ष ने कहा – हे पिताजी ! आप खिन्न न हों। मैं आपकी शपथ लेकर कहता हूँ कि मैं अपनी प्रिय छोटी बहन जीण को आपका अभाव महसूस नहीं होने दूँगा।
  • तब हर्ष के वचन से संतुष्ट होकर नरश्रेष्ठ घाँघूराव स्वर्ग में चला गया। उसकी पत्नी उसके विरह में विलाप करती -करती क्षय रोग से ग्रस्त हो गई।
  • प्राण त्यागती हुई वह पुत्र हर्ष से करुण वचन कहने लगी – हे पुत्र ! मैं प्रिय पुत्री जीण को कुँवारी ही छोड़ कर जा रही हूँ। (इसका विवाह न कर सकी )
  • मेरे बिना वह खिन्न न रहे। तुम्हें इसके लिए सदा यत्न करना होगा। कुल में अब तुम्हीं तो उसके एकमात्र आश्रय हो। तुम उसे ऐसा प्यार देना कि वह मुझे याद ही न करे।
  • हर्ष ने कहा – माँ ! तुम चिन्ता मत करो। बहन जीण मेरे लिए पुत्री की तरह ही है। अब मैं ही उसके लिए माता, पिता और भाई के रूप में रहूँगा।
  • यह बात सुनकर माता भी संतुष्ट होकर स्वर्ग चली गई। हर्ष जीण के विवाह के लिए श्रेष्ठ वर की खोज में लग गया।
  • उसके बाद जीण के श्रेष्ठ स्वभाव और सुन्दर रूप को देखकर उससे द्वेष करने वाली भाभी नित्य अपने वचनों और व्यवहार से जीण को पीड़ित करने लगी।
  • किन्तु जीणकुँवरी स्वभाव से सहनशील थी। इसलिए उसने अपना दुःख न तो भाभी के सामने और न भाई हर्ष के सामने प्रकट किया।
  • एक दिन हर्ष राज्यकार्य में व्यस्त थे। महल के पहरेदार सैनिक ने कहा – हे स्वामी ! जीण घर छोड़कर चली गई है।
  • यह बात सुनते ही हर्ष अत्यन्त उद्विग्न हो गया। वह शीघ्रता से उठकर उसी दिशा में चल पड़ा, जिधर उसकी बहन जीण गई थी।
  • हर्ष को शीघ्र ही जाती हुई जीण दिखाई पड़ी। जीण ओले गिरने से पीड़ित हुई। कमलिनी के समान तथा डरी हुई हरिणी के समान अत्यन्त व्याकुल थी।
  • हर्ष बोला – हे बहन जीण ! तुम घर को तथा मुझ भाई हर्ष को छोड़कर कहाँ जा रही हो। घर पर चलो। वहाँ मैं तुम्हारी सारी व्यथा सुनूँगा।
  • यह भोजन का समय है। तुम बिना भोजन किये हुए आई हो। पहले मधुर भोजन करेंगे। उसके बाद वार्तालाप करेंगे।
  • जीण बोली – भैया ! जहाँ आत्मीयता न हो, वहाँ क्या तो भोजन किया जावे और क्या वार्तालाप किया जावे। संबंधों की जड़ प्रेम ही है।
  • आज मेरे न माता है और न पिता। भाई को भी भाभी ने छीन लिया। मेरा तो आपके द्वारा प्रेमपूर्वक दी हुई वस्तु पर ही अधिकार है, आपके राज्याधिकार में बँटवारे का हक नहीं है।
  • किन्तु फिर भी भाभी के द्वारा मुझे दुर्व्यवहार से पीड़ित किया गया। मेरे द्वारा आपको कभी मन की व्यथा नहीं कही गई।
  • हर्ष बोला – यदि तुम्हारी भाभी के चित्त में तुम्हारे प्रति प्रेम नहीं है, तो तुम्हारे लिए अलग भवन बना दूँगा। तुम्हारे लिए सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण लाऊँगा।
  • जीण ने कहा – भैया ! न तो मैं पृथक भवन चाहती हूँ और न वस्त्र और आभूषण। ये सब भाभी को दीजिये। वही इन सबकी अधिकारिणी है।
  • हर्ष बोला – हे बहन जीण ! मेरी बात सुनो। तुमने पहले कभी अपनी भाभी के दुर्व्यवहार के बारे में कुछ नहीं बताया। आज घर को ही त्याग दिया। ऐसा क्यों किया ? मैं सारी बात सुनना चाहता हूँ।
  • जीण ने कहा – भैया ! आज भाभी के द्वारा सखियोंके सामने मुझ पर लाञ्छन लगाया गया है। मेरे चरित्र पर मिथ्या दोषारोपण किया गया है। इस बात से मैं पीड़ित हूँ।
  • इसके बाद मेरे द्वारा भगवान सूर्य को साक्षी मानकर प्रतिज्ञा की गई कि इस घर को छोड़ जगदम्बा के मन्दिर में जाकर रहूँगी।
  • वह मङ्गलमयी जयन्ती माता ही मेरी आश्रयदायिनी है। हे भैया ! मैं बेसहारा नहीं हूँ। उसी माता की शरण में जा रही हूँ।
  • भले ही प्रकृति में उलट-फेर हो जाय। चाहे असम्भव सम्भव हो जाय। लेकिन मैं प्रतिज्ञा कर लेने के बाद अब घर नहीं लौटूंगी।
  • जो कुछ खाद्य पदार्थ मिलेगा, उसे ही खाकर मैं सदा तप करती रहूँगी। माता का ध्यान लगाकर जप करती हुई सदा माता के चरणकमलों के आश्रय में रहूंगी।
  • जीण का यह वचन सुनकर हर्ष अत्यन्त व्यथित हो गया। वह सोचने लगा कि आज मेरी बहन मिथ्या लाञ्छित होकर दुःख से घर त्याग रही है।
  • मुझे तो धिक्कार है। मेरे द्वारा पहले माता-पिता को जो वचन दिया गया था, उसका पालन नहीं किया गया। मैं मिथ्याभाषी और पत्नी के दोष से निन्दित हो गया।
  • हर्ष को पुराना सम्पूर्ण घटनाक्रम याद आ गया। उसे माँ-बाप के वे वचन भी याद आ गए जो उन्होंने मरते समय कहे थे। जीण की सार-सँभाल का अपना संकल्प मिथ्या हुआ जानकर उसे सांसारिक जीवन से वैराग्य हो गया।
  • उसने बहन जीण से कहा कि अब मैं तुम्हारे साथ जाने की शपथ लेता हूँ। अब मेरा राज्य परिवार आदि कुछ नहीं है। मैं तप करने तुम्हारे साथ वन में जा रहा हूँ।
  • जीण बोली – नहीं भैया ! ऐसा मत करो। सुनो, यह कार्य उचित नहीं है। भाभी तुम्हारे बिना बेसहारा हो जाएगी। बिना सहारे के वह जीने  में समर्थ नहीं है।
  • राजा के बिना आरक्षित प्रजा नष्ट हो जाती है। तुम्हें भाभी और प्रजा का संरक्षण करना चाहिए। पति और राजा के धर्म का पालन करना चाहिए।
  • हर्ष बोला – जीण ! तुम्हारी भाभी तो अपने पिता के घर चली जाएगी। सेनापति मेरी प्रजा की रक्षा करने में समर्थ है।
  • ऐसा कहकर हर्ष बहन के मना करने पर भी राज्य त्यागकर, उसके साथ ओरण में स्थित जयन्तीमाता के मन्दिर में चला गया।
  • तत्पश्चात् आँसुओं से भरे नेत्रों वाला वह महामति हर्ष जयन्तीमाता को प्रणाम करके प्रार्थना करने लगा।
  • हे माता ! इस लोक में सब अभीष्ट फलों को देने वाली तुम्हीं हो। तुम विपत्तिसागर में पड़े व्यक्तियों को स्नेह से हाथ का सहारा देकर बचा लेती हो। 
  • हे माता ! जो सदा तुम्हारा भजन ध्यान और जप करते हैं, वे इस लोक और परलोक में परमानन्द प्राप्त करते हैं।
  • हे जगदम्बे ! तुम मेरी बहन को उसका इच्छित फल प्रदान करो। मेरी और कोई कामना नहीं है। तथा न कोई अभीष्ट फल है।
  • तत्पश्चात् भाई-बहन दोनों महान तप करने लगे। जीण तो माताजी के ओरण में तप करती तथा हर्ष भैरवमन्दिर में।
  • उसके बाद क्रमशः दिन, महीने और वर्ष बीतते चले गये। एक दिन अकस्मात् मूर्ति के स्थान पर जयन्तीमाता प्रकट हो गई।
  • प्रसन्न और कृतज्ञ कन्या जीण ने श्रद्धा से देवी जयन्ती को प्रणाम किया। इसके बाद वह भक्तिपूर्ण चित्त से देवी की स्तुति करने लगी –
  • हे पापविनाशिनी जयन्ती माँ ! तुम्हें नमस्कार है। माता ! आप ही मङ्गला हो। आप मङ्गला को नमस्कार है।
  • हे कालीरूपिणी माँ ! आपको नमस्कार है। भद्रकाली, कपालिनी और दुर्गा रूप वाली माता ! आपको नमस्कार है।
  • हे माता ! आप ही क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा रूपधारिणी हो। आपको बार-बार नमस्कार है।
  • प्रसन्नता से परिपूर्ण ह्रदय वाली जीण को भक्ति से सन्तुष्ट देवी ने कहा – हे पुत्री ! तुम क्या वरदान चाहती हो। तब जीण कहने लगी –
  • हे माता ! जैसे समुद्र में गिरा हुआ नमक उसी के रूप में विलीन हो जाता है, वैसे ही मैं आपके स्वरूप में विलीन हो जाना चाहती हूँ।
  • प्रसन्न होकर माता ने कहा – तुम जैसा चाहती हो, वैसा ही हो। हर्ष भैरव के स्वरूप में समाकर लोक का कल्याण करता रहे।
  • मेरे में लीन होकर मेरे रूप वाली तुम लोक पर कृपा करती हो। तुम दोनों भाई-बहनों का यह प्रेमभाव भूतल पर आदर्श है।
  • जीण जयन्तीमाता के रूप में विलीन हो गई। हर्ष भी भैरव के स्वरूप में समा गया। तब से वहाँ विराजमान जगदम्बा को जीणमाता कहा जाता है।
  • जीणमाता भक्तों को अभीष्ट फल देने वाली हैं। भक्तों के द्वारा लोक में उनका नित्य पूजन, वन्दन और कीर्तन किया जाता है।
  • प्राचीनकाल में मेवाड़ के आघाटपुर राज्य में हरीशचंद्र नामक प्रजापालक वीर राजा था।
  • दुर्भाग्यवश वह राजा कुष्ठरोग से ग्रसित हो गया। वह रोगमुक्त होने के लिए पृथ्वी के विभिन्न भागों में स्थित तीर्थों में विचरण करने लगा।
  • उसका आत्मीय पुरोहित मालाजी नामक पण्डित पूजा कराने के लिए उसके साथ तीर्थों में जाया करता था।
  • एक बार भाग्य की प्रेरणा से वह राजा जीणमाता के मन्दिर में गया, जो सब अभीष्ट फलों को देने वाला, अभयदायक और रमणीय था।
  • राजा ने वहाँ विश्राम करके और झरने में निर्मल जल में स्नान करके भक्तिपूर्ण चित्त से माता का पूजन किया।
  • वह जगदम्बा की कृपा से कष्टमुक्त हो गया। तब वह राजा उस छोटे से मन्दिर का विस्तार कराकर ही अपने राज्य को गया।
  • राजा ने अपने प्रिय पुरोहित मालाजी को जीणमाता के मन्दिर में पूजा के लिए नियुक्त कर दिया। पुरोहित वहीँ रहकर आनन्द से भक्तिपूर्वक पूजन करने लगा।
  • साम्भर नरेश पृथ्वीराज के शासनकाल में उसके धर्माध्यक्ष हठड़ नामक भक्त ने जीणमाता की कृपा से अभीष्ट फल पाया।
  • उसने मन्दिर का जीर्णोद्धार कराकर भव्य पूजन किया। समय-समय पर अन्य व्यक्ति भी जीणमाता की कृपा से अभीष्ट फल पाकर आनन्दित हुए।
  • उनमें पहले अल्हण उसके बाद बीच्छा और उसके बाद जेल्हण नामक श्रद्धालुजनों ने जीणमाता की कृपा प्राप्त की। उन्होंने जीर्णोद्धार व निर्माण कार्य करा-करा कर माता की पूजा की।
  • सुल्तान औरंगजेब ने मन्दिर के वैभव के बारे में सुनकर उसे खण्डित करने का निश्चय किया, किन्तु वह अपने प्रयास में विफल रहा।
  • परमकृपा करने वाली जीणमाता का स्मरण पूजन और ध्यान करने पर वह सब कामनाओं को पूरा करती है तथा बड़े से बड़े भय से रक्षा करती है। 
  • कथा समाप्त
    ॥ ॐ कुलदेव्यै नमः ॥

दधिमथी माता का इतिहास व कथा – कुलदेवीकथामाहात्म्य

‘कुलदेवीकथामाहात्म्य’

गोठ-मांगलोद की दधिमथी माता

इतिहास

दधिमथी माता का आदि शक्तिपीठ राजस्थान के नागौर जिले की जायल तहसील में है। यह नागौर से लगभग 40 कि.मी. दूर तथा जायल से 10 कि.मी. दूर गोठ और मांगलोद गाँवों के बीच स्थित है। मन्दिर सड़कमार्ग से जुड़ा है।
इतिहासकार गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार इस मन्दिर के आस-पास का क्षेत्र प्राचीनकाल में दाहिम क्षेत्र कहलाता था। उस क्षेत्र से निकले हुए विभिन्न जातियों के लोग क्षेत्र के नाम से दाहिमा ब्राह्मण, दाहिमा राजपूत, दाहिमा जाट आदि कहलाए। इस क्षेत्र में महर्षि दधीचि की तपोभूमि थी।  दधिमथीपुराण के अनुसार भगवती महालक्ष्मी ने निःसंतान महर्षि अथर्वा और उनकी पत्नी शान्ति की तपस्या से प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा। महर्षि अथर्वा को पुत्र की तथा शान्ति को पुत्री की अभिलाषा थी। महालक्ष्मी के वरदान से उनके घर महर्षि दधीचि का पुत्ररूप में जन्म हुआ और स्वयं महालक्ष्मी पुत्री के रूप में अवतरित हुई। दधिसागर को मथने के कारण वे दधिमथी कहलाई। उन्होंने कुलदेवी के रूप में महर्षि दधीचि का संरक्षण किया। महर्षि दधीचि के वंश के अतिरिक्त अन्य समाजों में भी वे कुलदेवी के रूप में पूजित हैं। महर्षि दधीचि दाहिम क्षेत्र में कुलगुरु के रूप में प्रतिष्ठित रहे। विभिन्न समाजों ने कुलगुरु की कुलदेवी के प्रति श्रद्धा भक्ति व आस्था रखी। दधिमथी माता उन समाजों में कुलदेवी के रूप में पूजित हैं।
दधिमथी माता की प्रतिमा का प्राकट्य भूगर्भ से हुआ है। उनका गोठ-मांगलोद स्थित शक्तिपीठ अत्यन्त प्राचीन है। माता की प्रतिमा के ठीक सामने शिलालेख है। इस अभिलेख को पं. रामकरण आसोपा ने प्रकाशित किया था। उन्होंने इसे मारवाड़ का प्राचीनतम अभिलेख बताते हुए 608 ई. में उत्कीर्ण गुप्तकालीन अभिलेख सिद्ध किया था। अभिलेख कुटिललिपि में अंकित है। इसमें धुल्हण नामक शासक के शासनकाल में अविघ्ननाग की अध्यक्षता में इस मन्दिर के निमित्त गोष्ठिकों और ब्राह्मणों द्वारा दिये गये 17070 द्रम्मों के दान का उल्लेख किया गया है। माता की प्रतिमा का कपालभाग ही भूमि से बाहर निकला हुआ है। इस कारण यह शक्तिपीठ कपालपीठ के नाम से प्रसिद्ध है।
मूर्तिकला के विशेषज्ञ मन्दिर के स्थापत्य पर प्रतिहारकालीन कला का प्रभाव मानते हैं। विजयशंकर श्रीवास्तव के मतानुसार ‘गोठ-मांगलोद का दधिमथी मन्दिर प्रतिहारकालीन मन्दिर-स्थापत्य का सुन्दर उदाहरण है तथा उस युग की कला के उत्कृष्ट स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है। दाहिमा ( दधीचक ) ब्राह्मणों की कुलदेवी को समर्पित यह देवभवन भारतीय स्थापत्य एवं मूर्तिकला का गौरव है।’
मन्दिर के वास्तुवैशिष्ट्य का वर्णन करते हुए डॉ. राघवेन्द्रसिंह मनोहर लिखते हैं –
श्वेत पाषाण से निर्मित यह शिखरबद्ध मन्दिर पूर्वाभिमुख है तथा महामारू शैली के मन्दिर का श्रेष्ठ उदाहरण है। बेदी की सादगी, जंघाभाग की रथिकाओं में देवी-देवताओं की मूर्तियाँ मध्य भाग में रामायण दृश्यावली एवं शिखर प्रतिहारकालीन परम्परा के अनुरूप हैं। चार बड़े चौक वाला यह मन्दिर भव्य एवं विशाल है।

मन्दिर का जंघाभाग पंचरथ है, जिसकी मध्यवर्ती प्रधान ताक में पश्चिम की ओर आसनस्थ चार भुजाओं वाली दुर्गा, उत्तर की ओर चार भुजाओं वाली पार्वती तथा दक्षिण की ओर आठ भुजाओं वाली गणपति प्रतिमा विद्यमान है जो आंशिक रूप से खण्डित है। इनके समीप स्थानक दिक्पाल अपने वाहनों सहित अंकित हैं। …. प्रतिरथ में दो भुजाओं वाली चंवरधारिणी मूर्ति स्थापित है। राजस्थान की प्रतिहारकालीन मूर्तिकला में रामायण दृश्यावली का प्राचीनतम अंकन दधिमथी माता मन्दिर में ही प्राप्त है।
दधिमती पत्रिका के पूर्व सम्पादक भालचन्द्र व्यास मन्दिर के स्थापत्य एवं शिलालेख में तिथ्यंकन को मन्दिर के प्राचीनतम कालनिर्धारण का हेतुक नहीं मानते। उनके मत में शिलालेख में वर्णित तिथि मन्दिर के जीर्णोद्धार एवं विकास को ही संकेतित करती है। शक्तिपीठ का अस्तित्व इस तिथि से पूर्व भी था, यही तथ्य शिलालेख से व्यक्त होता है। जीर्णोद्धार एवं विकास समय-समय पर होते रहे हैं। विक्रम सम्वत् 1906 में दाहिमा ब्रह्मचारी विष्णुदास द्वारा मन्दिर का नवीनीकरण एवं विकास का कार्य जारी है। दधिमथी शक्तिपीठ की महिमा का उल्लेख करते हुए डॉ. शालिनी सक्सेना लिखती हैं –
‘श्रीदधिमथी माता के मन्दिर में चैत्र व आश्विन के नवरात्रों में विशाल मेला लगता है, जिसमें सम्पूर्ण भारत के दाधीच ब्राह्मण तथा निकटस्थ गाँवों के सर्वजातीय लोग उल्लास के साथ आते हैं, माता की वन्दना पूजा अर्चन ज्योति व प्रसाद आदि करते हैं उस रात्रि को जागरण करते हैं। इस स्थान को शक्तिपीठ कहा गया है।

भक्त श्रद्धालु निकटवर्ती कपालकुण्ड में स्नान कर माता की पूजा – वन्दना करते हैं। मन्दिर में प्रातः सायं आरती होती है। दाधीच ब्रह्मणकुमारों का चूड़ाकरण संस्कार दधिमथी माता परिसर में करने का रिवाज है। श्रीदधिमथीमाता मन्दिर निर्जन प्रदेश में भक्तजनों की शक्ति बढ़ाने वाला एक पुरातन, पवित्र व पावन तीर्थ है।’

कथा 
॥ ॐ कुलदेव्यै नमः ॥ 
भक्तवत्सल दधिमथी माता ने कलियुग में भक्तों का उपकार करने के लिए भूमि पर प्रकट होने का संकल्प किया। 
वहाँ ब्रह्मकपालक्षेत्र में कुछ ग्वाले स्थित थे, जो गायें चरा रहे थे। उन्होंने दिव्यवाणी सुनी। 
हे पुत्रों यहाँ मेरा प्राकट्य हो रहा है। तुम अपनी गायों का ध्यान रखना। वे प्रचण्ड ध्वनि से भयभीत होकर भाग न जाएं। 
दधिमथी माता के प्राकट्य के समय वहाँ भीषण ध्वनि हुई। सारी गायें भागने लगीं। ग्वाले चिल्लाने लगे। 
दधिमथी माता उस क्षेत्र में धरती को फाड़कर ऊपर की ओर प्रकट होने लगीं, किन्तु ग्वालों का महान् कोलाहल सुनकर रुक गईं। उनका कपाल थोड़ा सा बाहर निकलकर स्थित हो गया। माता पृथ्वी पर उसी रूप में पूजी जाने लगीं। 
मारवाड़ के दाहिम क्षेत्र पर राजा धुल्हण के शासनकाल में अविघ्ननाग के सान्निध्य में दाधीच ब्राह्मणों के द्वारा लघुमन्दिर का जीर्णोद्धार और विस्तार किया गया। तब मन्दिर की शोभा की ख्याति समस्त भूतल पर फैल गई। 
स्वरूपसिंह नामक एक क्षत्रिय देवी दधिमथी का उपासक था। देवी की कृपा से उसने मेवाड़ का साम्राज्य प्राप्त किया। 
राणा ने बुद्धिमान विष्णुदास की प्रेरणा से जीर्णोद्धार और निर्माण कार्यों से अपनी भक्ति व्यक्त की। 
माता की कृपा से राणा स्वरूपसिंह ने महान् बलवान् पुत्र प्राप्त किया। इन माताजी की कृपा से ही जोधपुर की महारानी असाध्य रोग से मुक्त हुई। 

कथा समाप्त
॥ ॐ कुलदेव्यै नमः ॥

सच्चियाय माता की श्लोकमय कथा, इतिहास – कुलदेवीकथामाहात्म्य

‘कुलदेवीकथामाहात्म्य’

ओसियां की सच्चियाय माता


इतिहास

सच्चियाय माता संचाय, सच्चिका, सचवाय, सूच्याय, सचिया आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध है। इनका शक्तिपीठ जोधपुर से लगभग 60 कि.मी. दूर ओसियाँ में स्थित है। ओसियाँ पुरातात्त्विक महत्त्व का एक प्राचीन नगर है। जैन साहित्य में ओसियाँ नगर का उपकेश, ऊकेश, ओएश आदि नामों से उल्लेख मिलता है।
ओसियाँ धार्मिक सामंजस्य की नगरी रही है। यहाँ शैव, वैष्णव, शाक्त और जैन मन्दिर साथ-साथ बने। इन मन्दिरों में सच्चियाय माता का मन्दिर सर्वाधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय है। सच्चियाय माता के मन्दिर में महिषमर्दिनी दुर्गा की प्रतिमा स्थित है। वैदिकमतावलम्बियों की तरह श्रमणमतावलम्बी ओसवाल भी सच्चियाय की पूजा कुलदेवी के रूप में करते हैं। ओसवालों के पूर्वज जैनधर्म स्वीकार करने से पूर्व क्षत्रिय थे। ओसवालों का मूल उद्गमस्थल ओसियां ही है।
सच्चियायमाता का मन्दिर पहाड़ी पर स्थित है। मन्दिर के प्रवेशद्वार पर चंवरधारिणी स्त्रीप्रतिमाएँ कलापूर्ण हैं। मन्दिर तक पहुंचने के लिए सीढीदार आकर्षक मार्ग है, जिस पर आठ कलात्मक तोरणद्वार हैं।

पहाड़ी की चट्टानों को काटकर बनाया गया मन्दिर अत्यन्त भव्य है। उसका रचनाविधान अतीव चित्ताकर्षक है। मन्दिर-परिसर में नवदुर्गा, विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश, भैरव पुनियाजी आदि के छोटे-छोटे मन्दिर हैं। मुख्य मन्दिर पश्चिमाभिमुख है। मन्दिर का सभामण्डप आठ आकर्षक स्तंभों पर स्थित है। इस मन्दिर के गर्भगृह में सच्चियाय माता की भव्य स्वरूप वाली प्रतिमा प्रतिष्ठापित है। माता के बाईं ओर वैष्णवी माता की आकर्षक प्रतिमा है। मन्दिर आठवीं शताब्दी का बना हुआ है, पर इसका विकास मुख्यतः बारहवीं शताब्दी में हुआ। इस तथ्य की पुष्टि मन्दिर में लगे शिलालेखों से होती है। इतिहासकार गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने ‘ जोधपुर राज्य का इतिहास ‘ ग्रन्थ में इन शिलालेखों का उल्लेख किया है। ‘मुंहता नैणसी री ख्यात ‘ ग्रन्थ में माता के चमत्कारों का वर्णन किया गया है।
डॉ. महावीरमल लोढा ने अपनी पुस्तक ‘ओसवंश : उद्भव और विकास तथा मांगीलाल जी भूतोड़िया ने अपनी पुस्तक ‘इतिहास की अमरबेल ओसवाल ‘ में जैन परम्परा के गुटकों के उद्धरण दिये हैं जिनमें ओएशा नगर (ओसियाँ ) व मन्दिर के निर्माण की कथा का उल्लेख है। जहाँ ओएशा नगर बसा वहाँ पहले निर्जन वन था। वहाँ एक राक्षस रहता था। उस क्षेत्र में राक्षस के भय से सब आतंकित रहते थे। मंगा नामक ब्राह्मण की आराधना से प्रसन्न होकर उसकी अभिलाषा की पूर्ति के लिए माता ने राक्षस का संहार किया। मरते-मरते राक्षस ने प्रार्थना की, कि यहाँ जो नगर आपकी कृपा से बसेगा उसका नाम मेरे नाम पर हो। माता ने ऐसा ही होने का वरदान दिया –
मंगा  विप्र  तिन समय    एक मन सक्त अराधे। 
सुप्रसन्न       हुई      सक्त     अराकेन    अराधे। 

जद  कयो  कर  जोड़    तवे   एक राकस चावो। 
माजी   जिनने    मार   बस्तियां  सहर  बसाओ। 
मारियो तबे मरतां मुखां करुणाकर वोसे कयो। 
मोय   नाम   नग्र   बसे   देवी   केता   वर  दियो। 
सम्भवतः उस राक्षस का नाम ओसियाँ था। अतः उसके नाम पर नगर का नाम ओसियाँ रखा गया। बाद में जब राजा उपलदेव ने उपकेशगच्छ के आचार्य रत्नसूरी से देशना प्राप्त कर जैन धर्म स्वीकार किया, तब से नगर का नाम उपकेशपुर हो गया। ऊकेश, ओएश आदि शब्द भी  उपकेश ‘ शब्द के ही अपभ्रंश प्रयोग हैं। जनसाधारण के व्यवहार में ओसियाँ नाम ही प्रचलित रहा।
एक अन्य गुटके में सच्चियाय मन्दिर के संस्थापक उपलदेव पर माता की कृपा का वर्णन इस प्रकार किया गया है-
उपलदेव      पंवार      नगर      ओएसा      नरेश      रा,
राजरीत      भोगवै     सकल     सचियाय    दियो    वर,
नवलख     चरु      निधान     दियो     सोनहियां    देवी ,
इतव    उपर    अरिगंज   कियो    सह    पाव    न केवी ,
इम   करे  राज  भुगते  अदल  के  इक वर सब दिविया,
नहिं   राजपुत्र,  चिंता निपट सकत प्रगट कह कत्थिया।
हो   राजा,  किण   काज   करै  चिंता मन मांहि,
थारै   उदर   सुतन्न   वेह  अंक   लिखिया  नाहि,
जद    नृप   छै  दलगीर  दीना वाय क इम दाखै,
राज   बिना   सुत  राय  राज  म्हारो  कुण  राखै,
जा  नृपत  पुत्र  होसी  हमें घणां नरां पण घटसी,
होवसी वणं  संकर जुवा पुव रांध राव लहसी 
देवी    रै    वरदान    पुत्र     राजा    फल   पाये,
नाम   दियो   जयचन्द   बरस   पनरा   परणाये,
सच्चियायमाता अनेक समाजों में कुलदेवी के रूप में पूजित है। यहाँ बड़ी संख्या में श्रद्धालु, जात देने व जडूला उतारने के लिए आते रहते हैं। इस प्रकार यह मन्दिर लोक-आस्था का प्रमुख केन्द्र है।

डॉ. महावीरमल लोढा तथा मांगीलाल जी भूतोड़िया ने उपलदेव की कथा के दो स्रोतों का उल्लेख किया है। पहला स्रोत जैन परम्परा के गुटकों का है और दूसरा चारणसाहित्य व इतिहास का।

कथा 
॥ ॐ कुलदेव्यै नमः ॥ 
  • राजपूताना देश में एक लोकप्रिय और प्रजा से प्रेम रखने वाला महाबली राजा हुआ।  उसकी दो प्रिय रानियाँ थी।
  • उनमें जो सोलंकीकुल में उत्पन्न रानी थी, उसका पुत्र अत्यन्त पराक्रमी था। वह भूमण्डल पर उपलदेव नाम से प्रसिद्ध हुआ।
  • उसका विवाह कच्छवाहा कुल में हुआ। इसके बाद वह नरश्रेष्ठ उपलदेव युवराज पद प्राप्त कर शोभायमान हुआ।
  • सौतेले भाई की संगति के कारण उपल के स्वभाव में चंचलता आ गई। संसार में दुष्टों की संगति से मनुष्य के व्यक्तित्व में बदलाव आ जाता है।
  • एक दिन युवराज राज्य में भ्रमण कर रहा था। तब उसने जलाशय पर चंचलतावश कुमारियों के घड़े फोड़ दिये।
  • राजा ने युवराज को राज्य से निकाल दिया। देश-निकाला पाकर वह बंधुजनों के साथ ओसियाँक्षेत्र जा पहुँचा। वहाँ पर वह एक निर्जन वन में विश्राम करने लगा।
  • युवराज उपलदेव के मन में महान् पश्चाताप हुआ।  वे सोचने लगे – अहो ! दुष्ट भाई के संग से मेरा स्वभाव ही बदल गया।
  • हे जगदम्बा ! मैंने मोहवश कैसा दुष्कर्म कर डाला।  हे जगन्माता ! मैं क्षमा माँगता हूँ। मुझ शरणागत को क्षमा करो।
  • उसने स्वप्न में भयहारिणी  चामुण्डा का दर्शन किया। देवी ने कहा – हे वत्स ! तुम इस सुशोभन भूमि को त्यागना मत। यहीं रहना।
  • तुम अपने पलंग के नीचे देखो। वहाँ एक बन्द कुआँ है। यह कुआँ लोकहितकारी राजा सगर के द्वारा बनवाया हुआ है।
  • कुएं से उत्तर दिशा की ओर, साठ कदम की दूरी पर भूमि में धातुनिर्मित पात्र चरु गड़े हुए हैं। वे चरु सोने से भरे हैं।
  • उपलदेव ने जागकर अद्भुत दृश्य देखा। उसका ललाट केसर रंग से रंगा हुआ था अत्यन्त शोभायमान हो रहा था।
  • उपलदेव के बंधु – बांधवों के मस्तक कुंकुम से अंकित थे। यह दृश्य देखकर वे चकित थे। नरश्रेष्ठ उपलदेव को स्वप्न का सब वृतान्त याद आ गया।
  • माता के द्वारा दिया गया यह परचा मेरे सौभाग्य का सूचक है। इस प्रकार आश्वस्त होकर उपल खुदाई करने लगा।
  • कुआँ मिलने पर उसका पानी खारा देखकर वह दुःखी हो गया। मनुष्यों में श्रेष्ठ उस उपलदेव ने रात्रि में पुनः स्वप्न देखा।
  • वत्स ! तुमने मेरी प्रसन्नता के भोग क्यों नहीं लगाया। भोग लगा देने पर तुम पानी को मीठा पाओगे।
  • तुम घुड़सवारों के साथ पूरे दिन पृथ्वी पर विचरण करो। उतनी भूमि पर तुम्हारा राज्य स्थापित हो जाएगा।
  • तब प्रसन्न होकर उसने माता का पूजन किया। कुएं का जल मीठा हो गया। यह देखकर वह विस्मित हो गया।
  • प्रसन्न होकर वह उपलदेव योद्धाओं के साथ पृथ्वी पर विचरण करने लगा। दिन भर में वह जितनी पृथ्वी पर विचरण कर सका, वहाँ अपना राज्य स्थापित कर महाराज बन गया।
  • इसके बाद उपलदेव ने सोने के चरु पाने के लिए खुदाई करवाई। उसे बहुत से चरुओं में स्वर्णमुद्रायें प्राप्त हुईं।
  • महान् वीर उपलदेव ने माता के भव्य मन्दिर तथा ओसियां नगर की स्थापना की। उसने महान् उत्सव का आयोजन किया।
  • स्वप्न में माता द्वारा दिये गये आशीर्वाद और वरदान के सच हो जाने के बाद राजा उपलदेव, उसका मन्त्री ऊहड़ और प्रजाजन भगवती को श्रद्धा-भक्ति से कुलदेवी मानने लगे।
  • महान् वीर राजा उपलदेव मारवाड़ी भाषा में माता महिषासुरमर्दिनी को सच्ची आय तथा संचायमाता (सच्ची देवी ) कह कर ही पुकारते थे।
  • (विशेष – मारवाड़ी भाषा में ‘ आय ‘ शब्द देवीवाचक है। सकराय, समराय, जीणाय आदि शब्द इसी प्रकार ‘आय’ शब्द के योग से बने हैं। मारवाड़ी में सच को सांच /संच  इन रूपों में भी उच्चारण  होता है। इन रूपों के आधार पर संचायमाता नाम प्रचलित हुआ। ‘ सच्ची आय ‘ का उच्चारण सच्चियाय होने लगा। )
  • राजा उपलदेव ने ‘सच्चीआय माता’ की कृपा से गुणवान पुत्र पाया। उसका नाम जयचंद्र था। वह पिता को बहुत प्रिय था।
  • राजा उपलदेव ने ढलती जवानी में, एक जैन आचार्य से प्रेरित होकर बहुत से क्षत्रियों के साथ जैनधर्म की दीक्षा प्राप्त की।
  • अपने गुरु जैन आचार्य के उपदेश से राजा ने अहिंसाव्रत धारण किया। वह अपने जैन धर्म के अनुसार सच्चियायमाता की उपासना करने लगा।
  • महाराज उपलदेव का उहड़ नामक मन्त्री महान् धर्मनिष्ठ था। उसने एक सुन्दर महावीर – मन्दिर का निर्माण कराया।
  • तब कुछ श्रावकों ने मन्दिर में प्रतिष्ठापित श्री महावीर की प्रतिमा में स्थित दो गांठों को अशोभन देखकर मोहवश उनका छेदन कर दिया।
  • तब देवी ने कुपित होकर ग्रन्थिछेदन करने वाले श्रावकों को शाप दिया। माता के कोप की शान्ति के लिए स्नात्रपूजा की गई। तब माता ने संतुष्ट होकर अभयदान दिया।
  • संतुष्ट हुई देवी की आज्ञा से राजा और महाजन सब ओसियाँ से प्रस्थान कर सारे राष्ट्र में फैल गये। उन्होंने अत्यन्त समृद्धि को प्राप्त किया।
  • उनके वंशज ओसवाल कहलाये।  वे ओसवाल अपनी कुलदेवी की कृपा की कामना से ( जात जडूला ) शुभ – मंगल कार्य सम्पन्न करने के लिए श्रद्धा से आते हैं।
  • इस राष्ट्र के अनेक समाजों के विभिन्न गोत्रों में लोग इस कुलदेवी को संचाय, सच्चियाय, सच्चिका, सूचिकेश्वरी, सूच्याय, सचवाय आदि बहुत से नामों से पूजते हैं। कृपा की कामना से सब माँ जगदीश्वरी का ध्यान करते हैं।
  • महिषासुरमर्दिनी कुलदेवी सच्चियाय माता अपने भक्तों को मनोवांछित फल प्रदान करती है।
  • वैरसी सांखला बचपन में पिता की हत्या हो जाने से अनाथ हो गया था। माता की कृपा से शक्तिमान होकर उसने पिता के हत्यारे को मारकर प्रतिशोध लिया।
  • अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वह कमलपूजा करने की इच्छा से सच्चियाय माता के मन्दिर में गया, परन्तु माता ने उसे कमलपूजा करने से रोक दिया।
  • (विशेष – कमलपूजा में व्यक्ति अपना सिर काटकर आराध्य को अर्पण कर देता है। )
  • सच्चियायमाता की आज्ञा से वैरसी ने सोने का शीश बनवाकर उससे माता की कमलपूजा की। माता ने प्रसन्न होकर अपने हाथ में स्थित शंख वैरसी को दे दिया।
  • वैरसी ने माता की आज्ञा से शंख बजाया। इससे वह भूलोक में सांखला उपाधि से प्रसिद्ध हुआ। उसके बाद उसके गोत्र में जन्म लेने वाले वंशज भी सांखलासंज्ञा से प्रसिद्ध हुए।
  • सेठ गयपाल नामक एक भक्त ने माता की कृपा से मनोवांछित फल पाकर, बड़ी प्रसन्नता से मन्दिर में क्षेत्रपाल आदि मूर्तियों की प्रतिष्ठा कराई।
  • माता का परचा सच्चा होता है, कृपा सच्ची होती है, कृपा का फल भी सच्चा होता है। सच्चे भक्तों की रक्षा करने वाली माता का सच्चियाय (सच्ची देवी) नाम वस्तुतः सार्थक है।

कथा समाप्त

॥ ॐ कुलदेव्यै नमः ॥

सुन्धामाता की अद्भुत कथा व इतिहास – कुलदेवीकथामाहात्म्य

‘कुलदेवीकथामाहात्म्य’

सुन्धापर्वत की सुन्धामाता


इतिहास

राजस्थान के जालौर जिले की भीनमाल तहसील में जसवन्तपुरा से 12 कि.मी. दूर, दांतलावास गाँव के पास सुन्धानामक पहाड़ है। इसे संस्कृतसाहित्य में सौगन्धिक पर्वत, सुगन्धाद्रि, सुगन्धगिरि आदि नामों से कहा गया है। सुन्धापर्वत के शिखर पर स्थित चामुण्डामाता को पर्वतशिखर के नाम से सुन्धामाता ही कहा जाता है।
ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार जालौर के प्रतापी शासक उदयसिंह के पुत्र जालौरनरेश चाचिगदेव ने इस चामुण्डामन्दिर में मण्डप का निर्माण कराया। नैणसी की ख्यात में इस तथ्य का इस प्रकार उल्लेख  है –
रावल चाचगदे करमसी रो।
चाचगदे सुंधा रै भाखरे देहुरो।
चावंडाजी रो करायो। संमत 1312
सुन्धामाता के मन्दिर में लगे शिलालेख में इस तथ्य का उल्लेख इस प्रकार किया गया है –
मरौ मेरोस्तुल्यस्त्रिदशललनाकेलि सदृशं
सुगन्धाद्रिर्ना नातरुनिकटसन्नाहसुभगः।
तन्मूर्घ्नि त्रिदशेन्द्रपूजितपदाम्भोजद्वयां देवतां।
चामुण्डामघटेश्वरीति विदितामभ्यर्चितां पूर्वजैः,
नत्वाऽभ्यर्च्य नरेश्वरोऽथ विदधेऽस्या मन्दिरे मण्डपम् ।।
अर्थात् मरुभूमि में सुमेरुपर्वत के समान, देवाङ्गनाओं की क्रीडास्थली सा सुगन्धगिरि ( सुन्धापर्वत ) है जो अनेक प्रकार के वृक्षों के समूह से रमणीय है। उस ( सुन्धापर्वत ) के शिखर पर राजा ( चाचिगदेव ) ने देवराज द्वारा पूजित चरणकमलों वाली, अघटेश्वरी नाम से विख्यात, एवं अपने पूर्वजों द्वारा पूजित चामुण्डा की अर्चना करके इसके मन्दिर में मण्डप बनवाया।
सुन्धाशिलालेख के अनुसार राजा चाचिगदेव गुजरात के राजा वीरम को मारने वाला, शत्रु शल्य को नीचा दिखाने वाला तथा संग और पातुक को हराने वाला था। इनमें वीरम गुजरात का कोई प्रतापी राजा था। धभोई के शिलालेख में शल्य नामक राजा का उल्लेख है। वंथली के शासक संग का भी उल्लेख है।
अजमेर के संग्रहालय में रखे एक लेख से ज्ञात होता है कि चाचिगदेव की रानी का नाम लक्ष्मीदेवी तथा कन्या का नाम रूपादेवी था। रूपादेवी का विवाह राजा तेजसिंह के साथ हुआ।
सुन्धामाता का मन्दिर सुन्धापर्वत की एक प्राचीन गुफा में स्थित है। लोकमान्यता में सुन्धामाता को अघटेश्वरी कहा जाता है। इस विषय में डॉ. राघवेन्द्र सिंह मनोहर लिखते हैं – अघटेश्वरी से तात्पर्य वह धड़रहित देवी है, जिसका केवल सिर पूजा जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार दक्ष के यज्ञ के विध्वंस के बाद शिव ने सती के शव को कन्धे पर उठाकर ताण्डवनृत्य किया। तब भगवान् विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शव के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। उनके शरीर के अंग भिन्न-भिन्न स्थानों पर जहाँ गिरे वहाँ शक्तिपीठ स्थापित हो गये। सम्भवतः इस सुन्धापर्वत पर सती का सिर गिरा जिससे वे अघटेश्वरी कहलायीं।

सुन्धामाता के अवतरण के विषय में प्रचलित एक जनश्रुति उल्लेख करते हुए इतिहासकारों ने लिखा है कि ‘बकासुर नामक राक्षस का वध करने के लिए चामुण्डा अपनी सात शक्तियों सहित यहाँ अवतरित हुई, जिनकी मूर्तियाँ चामुण्डा (सुन्धामाता) प्रतिमा के पार्श्व में प्रतिष्ठापित हैं।’
सुन्धामाता के मन्दिर-परिसर के प्रथम भाग में भूर्भुवः स्वरीश्वर महादेव का मन्दिर है। मन्दिर में शिवलिंग स्थापित है। द्वितीय भाग में सर्वप्रथम सुन्धामाता के मन्दिर में प्रवेश करने हेतु विशाल एवं कलात्मक प्रवेशद्वार बना है। सीढियाँ चढ़ने पर आगे विशालकाय स्तम्भों पर स्थित सभामण्डप है। मन्दिर में मुख्य गुफा में चामुण्डामाता (सुन्धामाता) की भव्य प्रतिमा विराजमान है। उनके पार्श्व में ऐन्द्री, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, ब्रह्माणी और शाम्भवी ये सात शक्तियाँ प्रतिष्ठापित हैं। अन्य अनेक प्रतिमाएं भी प्रतिष्ठापित हैं।

भूर्भुवः स्वरीश्वर महादेव

भूर्भुवः सवरीश्वर महादेव की महिमा का उल्लेख करते हुए डॉ. शालिनी सक्सेना लिखती हैं – श्रीमालमाहात्म्य एवं उपलब्ध शिलालेखों के अनुसार यहाँ प्राचीन समय से ही आदिदेव शिव की उपस्थिति मानी जाती है। यहाँ वर्तमान में जो ‘भूरेश्वर महादेव’ के नाम से विख्यात मन्दिर है, वह श्रीमालमाहात्म्य के भूर्भुवः सवरीश्वर महादेव ही हैं। भू, र्भुवः स्व तीनों लोकों की भक्ति से प्रसन्न होकर शिव लिंगरूप में प्रकट हुए। वह लिंग भूर्भुवः सवरीश्वर नाम से प्रसिद्ध हुआ। वही शिवलिंग सुन्धामाता मन्दिर परिसर में प्रतिष्ठापित है।

जालौर राजवंश की कुलदेवी सुन्धामाता


सुन्धामाता जालौर के राजवंश की कुलदेवी है। यहाँ स्थापित शिलालेख में उन्हें चाचिगदेव के पूर्वजों द्वारा अभ्यर्चित कहा गया है। अनेक समाजों के विभिन्न गोत्रों में वे कुलदेवी के रूप में पूजित हैं। डॉ. राघवेन्द्रसिंह मनोहर के शब्दों में सुन्धामाता का लोक में बहुत माहात्म्य है। वैसे तो प्रतिदिन श्रद्धालु यहाँ आते हैं, पर वर्ष में तीन बार वैशाख, भाद्रपद एवं कार्तिक मास के शुक्लपक्ष में यहाँ मेला भरता है, जिसमे प्रदेशों के विभिन्न भागों से श्रद्धालु देवी-दर्शन कर उनकी अनुकम्पा तथा वांछित फल पाने यहाँ आते हैं।

कथा 

॥ ॐ कुलदेव्यै नमः ॥ 

  • आदिशक्ति भुवनेश्वरी जगदम्बा चामुण्डा सुन्धापर्वत पर ‘अघटेश्वरी’ नाम से विख्यात होकर विराजमान हैं।
  • प्राचीनकाल में इस लोक में बकासुर नामक महादैत्य हुआ।  उसने अत्याचारों की दानवी लीला की, जिससे त्रस्त होकर पृथ्वी कम्पायमान हो गई।
  • बकासुर को मारने के लिए महादेवी आदिशक्ति अपनी सात शक्तियों (ऐन्द्री, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, ब्रह्माणी और शाम्भवी) के साथ सुन्धापर्वत पर अवतरित हुईं।
  • सुन्धापर्वत पर अवतरित होने के कारण माता का सुन्धामाता यह प्रिय नाम लोकविख्यात हो गया। उस पर्वत पर भगवान् त्रिलोकीश शिव भी ‘भूर्भुवः स्वः ईश्वर’ नाम से विराजमान हैं।
  • भगवान् शिव और भगवती आद्याशक्ति के विराजने से महिमामय हुआ सुन्धातीर्थ मनुष्यों को कल्याण और शक्ति प्रदान करने वाला है। यह कलियुग में इस लोक के प्रत्येक कुल के लिए श्रद्धा का दिव्य केन्द्र है।
  • वहाँ प्राचीनकाल में जालौर ( जाबालीपुर ) नामक राज्य में उदयसिंह नामक अतुलपराक्रम वाला राजा था।
  • उदयसिंह का ज्येष्ठ पुत्र चाचिगदेव महान् बलवान् उदारहृदय और बुद्धिमान था।
  • चामुण्डा माता के अनन्य और परम भक्त प्रजा के प्रिय और महान् योद्धा चाचिगदेव ने युवराज पद प्राप्त किया।
  • चाचिगदेव के माता-पिता नियम से श्रद्धापूर्वक सुन्धापर्वत पर चामुण्डामाता के शक्तिपीठ में जाया करते थे।
  • पूर्वजन्म में किये गए पुण्यों से प्रेरित महामना चाचिगदेव अपने माता-पिता के साथ जैसे बचपन में सुन्धामाता के दरबार में जाता था…..
  • वैसे ही युवावस्था में भी सदा जाता रहा। अनन्य भक्तों की भक्ति रात – दिन बढ़ती ही रहती है।
  • पिता की आज्ञा से वह सदा अपने राज्य में भ्रमण करता रहता था। दान, कृपा और प्रेम से वह प्रजा को प्रसन्न रखता था।
  • लड़ाई के शौकीन, धूर्त, हिंसक और क्रूर सिन्धुराज ने यवन लुटेरों के साथ जालौर राज्य पर आक्रमण कर दिया।
  • चाचिगदेव ने पिता के साथ बहुत बड़ी सेना लेकर शत्रु को आगे बढ़ने से रोक दिया। उसने भीषण युद्ध किया।
  • सुन्धापर्वत पर विराजमान जगदम्बा चामुण्डा ने जालौरनरेश पर अनुग्रह किया। युद्ध में आक्रमणकारी सिन्धुराज मारा गया। उसकी सेना भाग खड़ी हुई।
  • चाचिगदेव ने सुन्धापर्वत पर चामुण्डामन्दिर में जाकर भक्तिभाव से माता को प्रणाम किया। उसने वहाँ मन्दिर में सुन्दर मण्डप बनवाया।
  • पिता उदयसिंह ने राज्य चाचिगदेव को देकर वानप्रस्थव्रत धारण कर लिया। वह चामुण्डामाता की भक्ति में लीन रहता हुआ सुन्धापर्वत पर ही रहने लगा।
  • एक बार प्रजा की सेवा करने वाला चाचिगदेव जगदम्बा चामुण्डा और अपने पिता के दर्शन के लिए सुन्धापर्वत पर गया।
  • वहाँ उसे अपने बुद्धिमान महामात्य का सन्देश मिला – ‘हे राजन् ! अपनी ताकत के नशे में चूर रहने वाला और जालौर राज्य से द्रोह करने वाला गुजरातनरेश वीरम जालौर पर आक्रमण के लिए प्रस्थान कर चुका है। उसके साथ उसका मित्र शल्य भी है। तथा दूसरी दिशा से वंथली का राजा संग उसकी सहायता के लिए जालौर पर आक्रमण हेतु तेजी से चला आ रहा है। ‘
  • यह सन्देश सुनकर अविचल श्रद्धा वाला, अनन्यभक्त महामति चाचिगदेव सुन्धापर्वतवासिनी माता चामुण्डा की स्तुति करने लगा।
  • हे माता ! भक्तों का संकट मिटाने वाली तुम्हीं हो। शरण में आए प्राणियों की वात्सल्यभाव से रक्षा करने वाली तुम्हीं हो।
  • प्राणियों की विपात्ति मिटाने वाले तुम्हारे ‘चामुण्डा’ नाम का जो जप करते हैं, उनके लिए कहीं कोई भय नहीं है।
  • राजा चाचिगदेव इस प्रकार स्तुति करता हुआ समाधिस्थ हो गया। तब भक्तवत्सल देवी ने सन्तुष्ट होकर उस पर कृपा की।
  • सुन्धामाता का प्रसाद पाकर एक ओर वह दुश्मन के सामने चल पड़ा। दूसरी ओर उसका सामंतसिंह नामक पुत्र चला।
  • शत्रुनाशिनी सुन्धामाता ने अनुकम्पा की। सामन्त ने राजा संग को मार गिराया। उसकी सेना भाग गई।
  • दूसरी तरफ राजा चाचिगदेव के नेतृत्व में जालौर की सेना ने प्रचण्ड शौर्य का प्रदर्शन किया। दुश्मन का मनोरथ भंग हो गया।
  • राजकुमार सामंतसिंह भी सेना के साथ पिता चाचिगदेव की सहायता के लिए आ गया। भीषण युद्ध हुआ। रणभूमि खून से लाल हो गई।
  • रणभूमि खण्डित हथियारों और क्षत-विक्षत शवों से पट गई। वीरम अपने मित्र शल्य और सेना के साथ युद्ध में मारा गया।
  • विजयी राजा चाचिगदेव कृतज्ञता से सुन्धामाता के मन्दिर में गया। उस देवी -भक्त राजा ने भक्तिभाव से वहाँ महान् उत्सव का आयोजन किया।
  • सुन्धापर्वतनिवासिनी करुणामयी चामुण्डामाता लोकव्यवहार की बोलचाल में सुन्धामाता नाम से ही विख्यात हो गई।
  • जो परात्पर आदिशक्ति है, वह महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती तीन रूपों में पूजी जाती हैं।
  • जो चित्स्वरूप वाली माता कात्यायनी, महामाया, दुर्गा, पापविनाशिनी, छत्रधारिणी तथा घोरदानवों की विनाशिनी है।
  • वही महेश्वरी जगदम्बा सुन्धामाता कहलाती है। उसकी कृपा से इस लोक और परलोक के सब फल प्राप्त होते हैं।

कथा समाप्त
॥ ॐ कुलदेव्यै नमः ॥